भगवान् शिव के द्वादश (12) ज्योतिर्लिंगों के बारे में आपने कभी न कभी सुना ही होगा | इनमें प्रभु रामेश्वरम् की…

भगवान् शिव के द्वादश (12) ज्योतिर्लिंगों के बारे में आपने कभी न कभी सुना ही होगा | इनमें प्रभु रामेश्वरम् की स्थापना श्री राम ने रामसेतु बनाने से पहले की थी | जब महावीर हनुमान ने उनके द्वारा दिए गए शिव लिंग के इस नाम का मतलब पूछा तो भगवान् राम ने शिव जी के नवीन स्थापित ज्योतिर्लिंग के स्वयं द्वारा दिए इस नाम की व्याख्या में कहा-
रामस्य ईश्वर: स: रामेश्वर: ||
मतलब जो श्री राम के ईश्वर हैं वही रामेश्वर हैं।

बाद में जब रामसेतु बनने की कहानी भगवान् शिव, माता सती को सुनाने लगे तो बोले के प्रभु श्री राम ने बड़ी चतुराई से रामेश्वरम नाम की व्याख्या ही बदल दी | माता सती के ऐसा कैसे, पूछने पर देवाधिदेव महादेव ने रामेश्वरम नाम की व्याख्या करते हुए, उच्चारण में थोड़ा सा फ़र्क बताया-
रामा: ईश्वरो: य: रामेश्वर: ||
यानि श्री राम जिसके ईश्वर हैं वही रामेश्वर हैं।

जिस सनातन धर्म के आराध्य भी एक दूसरे का सम्मान करते है, उस हिन्दू समाज के सभी धर्मानुरागियों को सावन मास की शुभकामनायें |
ॐ नमः शिवाय ||
(कहानी पवन कुमार जी के सौजन्य से)

भगवान शिव और विश्व की इतिहास


(Lord Shiva and world history)
कुछ माह पहले ही ‘ईश्वरकण’ की खोज के प्रयोग से हलचल पैदा करने वाली ‘नाभिकीय अनुसंधान यूरोपीय संगठन’ (CERN) का नाम तो विज्ञान प्रेमियों को याद होगा। ११३ देशों के ६०८ अनुसंधान संस्थानों के ७९३१ वैज्ञानिक तथा इंजीनियर इस संस्थान में अनुसंधानरत हैं। यह फ़्रान्स और स्विट्ज़रलैण्ड दोनों देशों की‌ भूमि में १०० मीटर गहरे में स्थित है। यह अनेक अर्थों में विश्व की विशालतम भौतिकी‌ की प्रयोगशाला है।

१९८४ में यहां के दो वैज्ञानिकों को बोसान कणों की खोज के लिये नोबेल से सम्मानित किया गया। १९९२ में ज़ार्ज शर्पैक को कणसंसूचक के आविष्कार के लिये नोबेल से सम्मानित किया गया।१९९५ में यहां ‘प्रति हाइड्रोजन ‘ अणुओं का निर्माण किया गया। वैसे तो इसकी उपलब्धियों की सूची लम्बी है, किन्तु इस समय यह फ़िर गरम चर्चा में है क्योंकि इसके एक प्रयोग से ऐसा निष्कर्ष- सा निकलता दिखता है कि एक अवपरमाणुक कण ने प्रकाश के वेग को हरा दिया है।

यह तो आइन्स्टाइन को अर्थात एक दृष्टि से आधुनिक भौतिकी के एक आधार स्तंभ को ध्वस्त कर सकने वाली खोज है। अभी‌ इस क्रान्तिकारी खोज की जाँच पड़ताल चल रही है। सरलरूप से कहें तब इस प्रयोगशाला में मुल कणों को तेज से तेज दौड़ाया जाता है, अर्थात यह प्रयोगशाला ‘कण त्वरक’ है जो मूलकणों को प्रकाश वेग के निकटतम त्वरित वेग (particle accelerator) प्रदान करने की क्षमता रखती है, और फ़िर यह उनमें, यदि मैं विनोद में कहूं तब, मुर्गों के समान टक्कर कराती है (अतएव इसका नाम विशाल हेड्रान संघट्टक भी है ) और यह इस तरह नए कणों का निर्माण कर सकती है, और प्रयोगशाला में‌ ही यह ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की‌ सूक्ष्मरूप में रचना कर सकती है। न केवल यह आकार और प्रकार में विशालतम है वरन कार्य में‌ सूक्ष्मतम कणों के व्यवहार की‌ खोज करती है, जिनके अध्ययन से इस विराट ब्रह्माण्ड की संरचना समझने के लिये भी मदद मिलती है।

संभवत: आपको विश्वास न हो कि इस विशालतम भौतिकी प्रयोगशाला केन्द्र में शिव जी कहना चाहिये कि नटराज की एक विशाल प्रतिमा स्थापित है ! जिस तरह शिव जी का ताण्डव नृत्य सृष्टि के विनाश और पुन: निर्माण का द्योतक है उसी‌ तरह इस ब्रह्माण्ड में सूक्ष्मतम कण नृत्य करते हैं, एक दूसरे को नष्ट करते हैं, और नए कणों की रचना करते हैं। अर्थात शिव जी का ताण्डव नृत्य ब्रह्माण्ड में हो रहे मूल कणों के ‘नृत्य’ का प्रतीक है।
१९७५ में फ़्रिट्याफ़ काप्रा, एक प्रसिद्ध अमैरिकी भौतिकी वैज्ञानिक ने ‘द डाओ आफ़ फ़िज़िक्स’ नाम की एक अनोखी पुस्तक लिखी, यह उनकी पाँचवी ‘अंतर्राष्ट्रीय सर्वाधिक प्रिय पुस्तक सिद्ध हुई, इसके २३ भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं। इस पुस्तक में‌ काप्रा ने शिव के ताण्डव और अवपरमाण्विक कणों के ऊर्जा नृत्य का संबन्ध दर्शाया है; “यह ऊर्जा नृत्य विनाश तथा रचना की स्पंदमान लयात्मक अनंत प्रक्रिया है। अतएव आधुनिक भौतिकी वैज्ञानिक के लिये हिन्दू पुराणों में वर्णित शिव का नृत्य समस्त ब्रह्माण्ड में अवपरमाण्विक कणॊं का नृत्य है, जो कि समस्त अस्तित्व तथा प्राकृतिक घटनाओं का आधार है।” वे आगे कहते हैं, “आधुनिक भौतिकी में‌ पदार्थ निष्क्रिय और जड़ नहीं‌ है वरन सतत नृत्य में रत है।” इस तरह आधुनिक भौतिकी तथा हिन्दू ज्ञान दोनों ही दृढ़ हैं कि ब्रह्माण्ड को गत्यात्मक ही समझना चाहिये, इसकी‌ निर्मिति स्थैतिक नहीं है।
शिव और मानव सभ्यता :- मानव समाज को जब भी जिस चीज की आवश्यकता हुई है, शिव ने अपनी दया और करुणा की छतरी खोल दी है। शिवजी के प्रति हम विभिन्न प्रकार से विचार भी नहीं कर सकते और न ही इतिहास में लिख सकते हैं।

मानव सभ्यता और मानव संस्कृति के गठन में शिव की जो विराट भूमिका है, उसमें यही कहना संगत है कि शिव को हटा देने पर मानव सभ्यता और मानव संस्कृति के लिए कोई भूमि ही नहीं मिल पाएगी। किंतु मानव सभ्यता और संस्कृति को निकाल देने पर भी शिव की महिमा रहेगी। वर्तमान मानव समाज और सुदूर भविष्य में भी मानव समाज के प्रति सुविचार करते समय, उसका यथार्थ इतिहास लिखते समय शिव को छोड़ देने से काम नहीं चलेगा। कई भाषा और कई धर्म के साथ भी शिव का सम्यक परिचय था। शिव को हम तंत्र और वेद, दोनों में ही पाते हैं, लेकिन अत्यंत प्राचीन काल में हम उन्हें नहीं पाते हैं, क्योंकि अत्यंत प्राचीन काल में ग्रंथ रचना संभव नहीं थी।
मानव सभ्यता में आध्यात्मिक जिज्ञासा और प्रेरणा का कारण और परिणाम ही शिव हैं। शिव अनंत हैं, शिव सार्वभौमिक और सार्वकालिक हैं। वे किसी एक सभ्यता के द्योतक नहीं हैं, वे तो सभ्यताओं के नियामक हैं। शिव स्वयं में एक संस्कृति हैं। एक ऐसी अनवरत धारा हैं, जो अध्यात्म और दैविक शक्तियों के प्रति मानवीय जिज्ञासाओं का प्रतिनिधित्व करती है। शिव की सार्वभौमिकता को जानना हो तो विश्व की अनेक सभ्यताओं के प्राचीन अध्यायों का अवलोकन करना होगा। मिस्र , हड़प्पा , बेबीलोन और मेसोपोटामिया की सभ्यता में पितृ शक्ति की उपासना के प्रतीक मिले हैं। ये प्रतीक ही शिव आस्था की वैश्विकता को सिद्घ करते हैं। जहां आगमो शिव है वेदों में शिव रुद्र हैं, वहीं पुराणों में अद्र्घनारीश्वर हो जाते हैं। यह एक गंभीर आध्यात्मिक चिंतन है। नारी को शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया। माना गया कि शिव अर्थात कल्याण, शक्ति के बिना संभव नहीं है। शक्ति के अनेक रूप हैं। प्रतीकात्मक दृष्टि से सब ज्ञान, धैर्य, वीरत्व, जिज्ञासा, क्षमा, सत्य तथा अन्य सात्विक आचरणों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

१) प्राचीन मिस्र, नील नदी के निचले हिस्से के किनारे केन्द्रित पूर्व उत्तरी अफ्रीका की एक प्राचीन सभ्यता थी, जो अब आधुनिक देश मिस्र है।
नील नदी के उपजाऊ बाढ़ मैदान ने लोगों को एक बसी हुई कृषि अर्थव्यवस्था और अधिक परिष्कृत, केन्द्रीकृत समाज के विकास का मौका दिया, जो मानव सभ्यता के इतिहास में एक आधार बना।
5500 ई.पू. तक, नील नदी घाटी में रहने वाली छोटी जनजातियाँ संस्कृतियों की एक श्रृंखला में विकसित हुईं, जो उनके कृषि और पशुपालन पर नियंत्रण से पता चलता है और उनके मिट्टी के मूर्ति , पात्र और व्यक्तिगत वस्तुएं जैसे कंघी, कंगन और मोतियों से य स्पष्ट दिखता है की पशुाप्ति ( शिव ) ही है उन्हें पहचाना जा सकता है। ऊपरी मिस्र की इन आरंभिक संस्कृतियों में सबसे विशाल, बदारी को इसकी उच्च गुणवत्ता वाले चीनी मिट्टी की , पत्थर के उपकरण और तांबे के मार्तिओं में पशुपति शिव जोड़ी बैल ( नंदी ) उनके देवता के रूप जाना जाता है।

मिस्र में शिव : कल्याण के शिवांक के अनुसार उत्तरी अफ्रीका के इजिप्ट (मिस्र) में तथा अन्य कई प्रांतों में नंदी पर विराजमान शिव की अनेक मूर्तियां पाई गई हैं। वहां के लोग बेलपत्र और दूध से इनकी पूजा करते थे।
माउंट ऑफ ओलिव्स पर टैम्पल माउंट या हरम अल शरीफ यरुशलम में धार्मिक रूप से बहुत पवित्र स्थान है। इसकी पश्चिमी दीवार को यहूदियों का सबसे पवित्र स्थल कहा जाता है। यहूदियों की आस्था है कि इसी स्थान पर पहला यहूदी मंदिर बनाया गया था। इसी परिसर में डॉम ऑफ द रॉक और अल अक्सा मस्जिद भी है। इस मस्जिद को इस्लाम में मक्का और मदीना के बाद तीसरा सबसे पवित्र स्थल माना जाता है। यह स्थान तीन धर्मों के लिए पवित्र है- यहूदी, ईसाई और मुसलमान। यह स्थान ईसा मसीह की कर्मभूमि है और यहीं से ह. मुहम्मद स्वर्ग गए थे।
यहूदियों के गॉड : यहूदी धर्म के ईश्वर नीलवर्ण के हैं, जो शिव के रूप से मिलते-जुलते हैं। कृष्ण का रंग भी नीला बताया जाता है। यहूदी धर्म में शिवा, शिवाह होकर याहवा और फिर यहोवा हो गया। शोधकर्ताओं के अनुसार यहां यदुओं का राज था, यही यहूदी कहलाए।

✍🏻करणजे के यस

File photo

अध्भुत और अकल्पनीय युद्ध तंत्र था चक्रव्यूह।

#महाभारत_चक्रव्यूह

विश्व का सबसे बड़ा युद्ध था महाभारत का कुरुक्षेत्र युद्ध। इतिहास में इतना भयंकर युद्ध केवल एक बार ही घटित हुआ था। अनुमान है कि महाभारत के कुरुक्षेत्र युद्ध में परमाणू हथियारों का उपयॊग भी किया गया था। ‘चक्र’ यानी ‘पहिया’ और ‘व्यूह’ यानी ‘गठन’। पहिए के जैसे घूमता हुआ व्यूह है चक्रव्यूह। कुरुक्षेत्र युद्ध का सबसे खतरनाक रण तंत्र था चक्रव्यूह। यधपि आज का आधुनिक जगत भी चक्रव्यूह जैसे रण तंत्र से अनभिज्ञ हैं। चक्रव्यू या पद्मव्यूह को बेधना असंभव था। द्वापरयुग में केवल सात लोग ही इसे बेधना जानते थे। भगवान कृष्ण के अलावा अर्जुन, भीष्म, द्रॊणाचार्य, कर्ण, अश्वत्थाम और प्रद्युम्न ही व्यूह को बेध सकते थे जानते हैं। अभिमन्यु केवल चक्रव्यूह के अंदर प्रवेश करना जानता था।

चक्रव्यूह में कुल सात परत होती थी। सबसे अंदरूनी परत में सबसे शौर्यवान सैनिक तैनात होते थे। यह परत इस प्रकार बनाये जाते थे कि बाहरी परत के सैनिकों से अंदर की परत के सैनिक शारीरिक और मानसिक रूप से ज्यादा बलशाली होते थे। सबसे बाहरी परत में पैदल सैन्य के सैनिक तैनात हुआ करते थे। अंदरूनी परत में अस्र शत्र से सुसज्जित हाथियों की सेना हुआ करती थी। चक्रव्यूह की रचना एक भूल भुलैय्या के जैसे हॊती थी जिसमें एक बार शत्रू फंस गया तो घन चक्कर बनकर रह जाता था।
चक्रव्यूह में हर परत की सेना घड़ी के कांटे के जैसे ही हर पल घूमता रहता था। इससे व्यूह के अंदर प्रवेश करने वाला व्यक्ति अंदर ही खॊ जाता और बाहर जाने का रास्ता भूल जाता था। माहाभारत में व्यूह की रचना गुरु द्रॊणाचार्य ही करते थे। चक्रव्यूह को युग का सबसे सर्वेष्ठ सैन्य दलदल माना जाता था। इस व्यूह का गठन युधिष्टिर को बंधी बनाने के लिए ही किया गया था। माना जाता है कि 48*128 किलॊमीटर के क्षेत्र फल में कुरुक्षेत्र नामक जगह पर युद्ध हुआ था जिसमें भाग लेने वाले सैनिकों की संख्या 1.8 मिलियन था!

चक्रव्यूह को घुमता हुआ मौत का पहिया भी कहा जाता था। क्यों कि एक बार जो इस व्यूक के अंदर गया वह कभी बाहर नहीं आ सकता था। यह पृथ्वी की ही तरह अपने अकस में घूमता था साथ ही साथ हर परत भी परिक्रमा करती हुई घूमती थी। इसी कारण से बाहर जाने का द्वार हर वक्त अलग दिशा में बदल जाता था जो शत्रु को भ्रमित करता था। अध्भुत और अकल्पनीय युद्ध तंत्र था चक्रव्यूह। आज का आधुनिक जगत भी इतने उलझे हुए और असामान्य रण तंत्र को युद्ध में नहीं अपना सकता है। ज़रा सॊचिये कि सहस्र सहस्र वर्ष पूर्व चक्रव्यूह जैसे घातक युद्ध तकनीक को अपनाने वाले कितने बुद्धिवान रहें होंगे।

चक्रव्यूह ठीक उस आंधी की तरह था जो अपने मार्ग में आनेवाले हरस चीच को तिनके की तरह उड़ाकर नष्ट कर देता था। इस व्यूह को बेधने की जानकारी केवल सात लोगों के ही पास थी। अभिमन्यू व्यूह के भीतर प्रवेश करना जानता था लेकिन बाहर निकलना नहीं जानता था। इसी कारण वश कौरवों ने छल से अभिमन्यू की हत्या कर दी थी। माना जाता है कि चक्रव्यूह का गठन शत्रु सैन्य को मनोवैज्ञानिक और मानसिक रूप से इतना जर्जर बनाता था कि एक ही पल में हज़ारों शत्रु सैनिक प्राण त्याग देते थे। कृष्ण, अर्जुन, भीष्म, द्रॊणाचार्य, कर्ण, अश्वत्थाम और प्रद्युम्न के अलावा चक्रव्यूह से बाहर निकलने की रणनीति किसी के भी पास नहीं थी।

अपको जानकर आश्चर्य होगा कि संगीत या शंख के नाद के अनुसार ही चक्रव्यूह के सैनिक अपने स्थिती को बदल सकते थे। कॊई भी सेनापती या सैनिक अपनी मन मर्ज़ी से अपनी स्थिती को बदल नहीं सकता था। अद्भूत अकल्पनीय। सदियों पूर्व ही इतने वैज्ञानिक रीति से अनुशासित रण नीती का गठन करना सामान्य विषय नहीं है। माहाभारत के युद्ध में कुल तीन बार चक्रव्यूह का गठन किया था, जिनमें से एक में अभिमन्यू की म्रुत्यू हुई थी। केवल अर्जुन ने कृष्ण की कृपा से चक्रव्यूह को बेध कर जयद्रत का वध किया था। हमें गर्व होना चाहिए कि हम उस देश के वासी है जिस देश में सदियों पूर्व के विज्ञान और तकनीक का अद्भुत निदर्शन देखने को मिलता है। निस्संदेह चक्रव्यूह न भूतो न भविष्यती युद्ध तकनीक था। न भूत काल में किसी ने देखा और ना भविष्य में कॊई इसे देख पायेगा।
मध्य प्रदेश के 1 स्थान और कर्नाटक के शिवमंदिर में आज भी चक्रव्यू बना हुआ है ,हिमाचल प्रदेश मे सोलह सींगी नामक जगह पर भी अंकित है

इस नदी में मिलते हैं शिवलिंग, जानिए रहस्य . . .

इसलिए केवल इस नदी में मिलते हैं शिवलिंग, जानिए रहस्य . . .

#नर्मदेश्वर_शिवलिंग

नर्मदा नदी से निकला हर पत्थर शंकर होता है, इसलिए इन्हें नर्मदेश्वर भी कहा गया है

ग्रंथों में नर्मदा को भारत की सबसे पवित्र नदी माना जाता है। मान्यता है कि जो फल गंगा नदी में स्नान से मिलता है, वही फल मात्र नर्मदा नदी के दर्शन से प्राप्त होता है। इसका उल्लेख नर्मदा पुराण में भी किया गया है। नर्मदा से निकला हर कंकड़ भगवान शिव का प्रतीक माना जाता है। नर्मदा से निकले शिवलिंग को नर्मदेश्वर भी कहा गया है। जिसका उल्लेख विभिन्न धार्मिक ग्रंथों में किया गया है। नर्मदा से निकलने वाले पत्थर शिवलिंग के आकार के होते हैं। वैज्ञानिकों का मत है कि यह सब प्राकृतिक क्रिया से होता है। नदी के तेज बहाव में पत्थर बहता है, टकराता है। जिससे उसके नुकीले हिस्से टूट जाते हैं और वह शिवलिंग के आकार के रूप में परिवर्तित हो जाता है।

वहीं धार्मिक मान्यता इससे इतर है। पौराणिक विपिन शास्त्री कहते हैं कि चूंकि नर्मदा भगवान शिव की पुत्री हैं, इसलिए नर्मदा में ही शिवलिंग निर्मित होते हैं। देश की अन्य नदियों में मिलने वाले पत्थर पिंड के रूप में नहीं मिलते हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि केवल नर्मदा नदी पर ही शिव कृपा है।

उलटी दिशा में बहने वाली नदी
नर्मदा देश की ऐसी नदी है जो पूर्व से पश्चिम की ओर उलटी दिशा में बहती है। यह विशालकाय पर्वतों को चीरते हुए बहती है। नर्मदा के तेज बहाव में बड़े-बड़े पत्थर ध्वस्त हो जाते हैं।
ऐसी मान्यता है कि नर्मदा अपने प्रेमी से रूठकर उलटी दिशा में चल पड़ीं थीं। उनके सामने जो भी आया नष्ट हो गया।

देश भर में नर्मदेश्वर की महिमा
देश के प्रतिष्ठित मंदिरों में नर्मदा से निकले शिवलिंग ही स्थापित किए गए हैं। नर्मदा से निकले शिवलिंग की मांग पूरे देश में है।
नर्मदा किनारे खुद 10 करोड़ तीर्थ बने हुए हैं। इन तीर्थों में नर्मदेश्वर विराजमान हैं। मत्स्य पुराण में नर्मदा के किनारे बसे तीर्थों का उल्लेख है।

इसलिए भी बनते हैं शिव पिंड
नर्मदा नदी का इतिहास अति प्राचीन है। नर्मदा वैली को लेकर हुई रिसर्च में यह स्पष्ट हो गया है कि मानव सभ्यता के शुरूवात से ही नर्मदा नदी का अस्तित्व था। इस नदी के तट पर बड़े-बड़े साधु संतों ने तप किया है।
नर्मदा किनारे पूजन करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसलिए देश भर के संत नर्मदा तट पर साधना करने के लिए पहुंचते थे। यहां वे भगवान शिव के रूप में शिवलिंग की स्थापना करते थे। यही शिवलिंग आज नर्मदा में मिलते हैं।

– नर्मदा नदी के शिवलिंग को सीधा ही स्थापित किया जा सकता है, इसके प्राण प्रतिष्ठा की आवश्यकता नहीं होती है.
– कहा जाता है कि, जहां नर्मदेश्वर का वास होता है, वहां काल और यम का भय नहीं होता है.
– व्यक्ति समस्त सुखों का भोग करता हुआ शिवलोक तक जाता है.

हर हर महादेव…🙏🌺🙏

तैमूर लँग को भारत से बाहर खदेड़ने वाली वीरांगना रामप्यारी गुर्जर की कहानी

तैमूर लंग की 120000 की सेना देखते ही देखते ढेर हो गई और उसे जान बचाकर भागना पड़ा

हमारे वामपंथी इतिहासकार हमें बताते आए हैं कि कैसे तैमूर लंग और उसकी क्रूर सेना ने दिल्ली को क्षत विक्षत करते हुए लाखों हिन्दू वीरों को मृत्युलोक भेजा था। यही इतिहासकार बड़े चाव से बताते हैं कि कैसे तैमूर भारत से अथाह संपत्ति लूटकर भारत में अपना सारा साम्राज्य खिज्र खान सैयद के हाथों छोडकर अपने आगे के अभियानों को आगे बढ़ाने हेतु निकाल पड़ा था। पर क्या यही सत्य है? क्या उस कालखंड में कुछ और घटित नहीं हुआ था इस देश मे? यह अर्धसत्य है।

आज उस वीरांगना की कथा में हम आपको बताएंगे जिसे वामपंथी इतिहासकारों ने हमसे वर्षों तक छुपाए रखा। सैफ्रन स्वोर्ड्स (Saffron Swords: Centuries of Indic Resistance to Invaders) जिसकी लेखिका हैं मनोशी सिंह रावल, इसमें 51 ऐसे हिन्दू वीरों की कथाएँ हैं जिन्होंने इस्लामिक आताताईयों और ब्रिटिश लूटेरों के अजेयता के दंभ को धूल धूसरित किया था। आज की कथा इसी पुस्तक के पहले अध्याय से ली गयी है और ये कथा है तैमूर को अपना भारत अभियान अपूर्ण छोड़ पलायन करने हेतु विवश करने वाली वीरांगना रामप्यारी गुर्जर की।

रामप्यारी गुर्जर का जन्म सहारनपुर के एक गुर्जर परिवार में हुआ था। वीरता बाल्यकाल से ही रामप्यारी गुर्जर के अंदर नैसर्गिक रूप से भरी थी। निर्भय और हठी स्वभाव की, रामप्यारी गुर्जर अपनी मां से नित्य ही पहलवान बनने हेतु आवश्यक नियम जिज्ञासा पूर्वक पूछा करती थी और फिर प्रात: काल हो या संध्याकाल, वे नियमित रूप से किसी एकान्त स्थान में व्यायाम किया करती थी।

जैसे अग्नि में तपकर सुवर्ण की चमक और निखरती है, वैसे ही रामप्यारी गुर्जर भी नियमित व्यायाम, अथक परिश्रम और अनुशासित जीवन शैली से अत्यंत शक्तिशाली योद्धा बन कर उभरीं। रामप्यारी सदैव पुरुषों के सदृश वस्त्र पहनती थी और अपने ग्राम और पड़ोसी ग्रामों में पहलवानों के कौशल देखने अपने पिता और भाई के साथ जाती थी| रामप्यारी की योग्यता, शक्ति एवं कौशल की प्रसिद्धि शनैः शनैः आस पड़ोस के सभी ग्रामों में फैलने लगी।

लेकिन हर योद्धा को एक अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ता था, और रामप्यारी गुर्जर हेतु भी शीघ्र ही ऐसा समय आया। वर्ष था 1398। उस समय भारतवर्ष पर तुग़लक वंश का शासन हुआ करता था, परंतु ये शासन नाममात्र का था, क्योंकि उसका आधिपत्य कोई भी राजा स्वीकारने को तैयार नहीं था।

इसी समय आगमन हुआ समरकन्द के क्रूर आक्रांता अमीर तैमूर का, जिसे कुछ केवल तैमूर, तो कुछ तैमूर लंग या तैमूर लँगड़े के नाम से भी जानते थे। तैमूर के खड्ग और उसके युद्ध कौशल के आगे नसीरुद्दीन तुग़लक निरीह व दुर्बल सिद्ध हुआ और और उसकी सेना पराजित हुई। नसीरुद्दीन तुग़लक को परास्त करने के पश्चात तैमूर ने दिल्ली में मौत का मानो एक खूनी उत्सव सा मनाया, जिसका उल्लेख करते हुये आज भी कई लोगों की आत्माएँ कंपायमान हो उठती है।

दिल्ली को क्षत विक्षत करने के उपरांत तैमूर ने अपनी क्रूर दृष्टि हिंदुओं और उनके तीर्थों की ओर घुमाई। ब्रिटिश इतिहासकार विन्सेंट ए स्मिथ द्वारा रचित पुस्तक ‘द ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इंडिया : फ्रोम द अर्लीएस्ट टाइम्स टू द एण्ड ऑफ 1911’ की माने तो भारत में तैमूर के अभियान का मुख्य उद्देश्य था: सनातन समुदाय का विनाश कर भारत में इस्लाम की ध्वजा लहराना । जब तुग़लक वंश को धाराशायी करने के पश्चात तैमूर ने दिल्ली पर आक्रमण किया था, तो उसने उन क्षेत्रों को छोड़ दिया, जहां मुसलमानों की आबादी ज़्यादा था, और उसने केवल सनातन समुदाय पर निशाना साधा। जाने कितने लोग तैमूर की इस हूहभरी अग्नि में भस्म हुए, जो बचे वो दास बना दिये गए।

यह सूचना जाट क्षेत्र में पहुंची, जाट क्षेत्र मे आज का हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ भाग आते हैं। जाट क्षेत्र के तत्कालीन प्रमुख देवपाल ने महापंचायत का आयोजन किया। इस महापंचायत में जाट, गुर्जर, अहीर, वाल्मीकि, राजपूत, ब्राह्मण एवं आदिवासी जैसे अनेक समुदायों के सदस्य शामिल थे। महापंचायत में देवपाल ने न केवल तैमूर के अत्याचारों को सबके समक्ष उजागर किया, अपितु वहाँ उपस्थित सभी समुदायों से यह निवेदन किया कि वे अपने सभी मतभेद भुलाकर एक हों, और तैमूर को उसी की भाषा में जवाब कर न केवल सनातन समुदाय की रक्षा करें, वरन समूचे भारतवर्ष के लिए एक अनुपम उदाहरण पेश करें।

अंतत : सभी समुदायों की सहमति से महापंचायत ने तैमूर की सेना से छापामार युद्ध लड़ने की रणनीति बनायीं। इसहेतु महापंचायत ने सर्व समाज की एक सेना तैयार की, जिसमें इस महापंचायत सेना के ध्वज के अंतर्गत 80,000 योद्धा शामिल हुए थे। इन्हें समर्थन देने हेतु 40000 अतिरिक्त सैनिकों की टुकड़ी तैयार की गई, जिसमें सभी महिला सदस्य थी, और उनकी सेनापति नियुक्त हुई रामप्यारी गुर्जर। वहीं मुख्य सेना के प्रमुख थे महाबली जोगराज सिंह गुर्जर और उनके सेनापति थे वीर योद्धा हरवीर सिंह गुलिया।

एक सुनियोजित योजना के अंतर्गत 500 युवा अश्वारोहियों को तैमूर की सेना पर जासूसी हेतु लगाया गया, जिससे उसकी योजनाओं और भविष्य के आक्रमणों के बारे में पता चल सके। यदि तैमूर एक स्थान पर हमला करने की योजना बनाता, तो उससे पहले ही रुग्ण, वृद्धजनों और शिशुओं को सुरक्षित स्थानों पर सभी मूल्यवान वस्तुओं सहित स्थानांतरित कर दिया जाता।

वीर रामप्यारी गुर्जर ने देशरक्षा हेतु शत्रु से लड़कर प्राण देने की प्रतिज्ञा की। जोगराज के नेतृत्व में बनी 40000 ग्रामीण महिलाओं की सेना को युद्ध विद्या के प्रशिक्षण व् निरीक्षण का दायित्व भी रामप्यारी चौहान गुर्जर के पास था, इनकी चार सहकर्मियों भी थी, जिनके नाम थे हरदाई जाट, देवी कौर राजपूत, चंद्रों ब्राह्मण और रामदाई त्यागी। इन 40000 महिलाओं में गुर्जर, जाट, अहीर, राजपूत, हरिजन, वाल्मीकि, त्यागी, तथा अन्य वीर जातियों की वीरांगनाएं शामिल थी। यूं तो इनमें से कई ऐसी महिलाए भी थी, जिनहोने कभी शस्त्र का मुंह भी नहीं देखा था परंतु रामप्यारी के हुंकार पर वह अपने को रोक ना पायी। अपनी मातृभूमि और अपने संस्कृति की रक्षा हेतु देवी दुर्गा की संस्कृति से संबंध रखने वाली इन दुर्गाओं ने शस्त्र चलाने में तनिक भी संकोच नहीं किया।

प्रत्येक गांव के युवक-युवतियां अपने नेता के संरक्षण में प्रतिदिन शाम को गांव के अखाड़े पर एकत्र हो जाया करते थे और व्यायाम, मल्ल युद्ध तथा युद्ध विद्या का अभ्यास किया करते थे। उत्सवों के समय वीर युवक युवतियाँ अपने कौशल सार्वजनिक तौर पर प्रदर्शित किया करते थे।

अंतत: धर्मयुद्ध का दिन समीप आया। गुप्तचरों की सूचना के अनुसार तैमूर लंग अपनी विशाल सेना के साथ मेरठ की ओर कूच कर रहा था। सभी 120000 सैनिक केवल महाबली जोगराज सिंह गुर्जर के युद्ध आवाहन की प्रतीक्षा कर रहे थे।

सिंह के सदृश गरजते हुये महाबली जोगराज सिंह गुर्जर ने कहा, “वीरों, भगवद गीता में जो भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कहा था, उसका स्मरण करो। जो मोक्ष हमारे ऋषि मुनि योग साधना करके प्राप्त करते हैं, वो हम योद्धा यहाँ इस रणभूमि पर लड़कर प्राप्त करेंगे। यदि मातृभूमि की रक्षा करते करते आप वीरगति को प्राप्त हुये, तब भी सारा संसार आपकी वंदना करेगा।

आपने मुझे अपना प्रमुख चुना है, और इसलिए मैं अंतिम श्वास तक युद्धभूमि से पीछे नहीं हटूँगा। अपनी अंतिम श्वास और रक्त के अंतिम बूंद तक मैं माँ भारती की रक्षा करूंगा। हमारे राष्ट्र को तैमूर के अत्याचारों ने लहूलुहान किया है। योद्धाओं, उठो और क्षण भर भी विलंब न करो। शत्रुओं से युद्ध करो और उन्हे हमारी मातृभूमि से बाहर खदेड़ दो”।

महाबली जोगराज सिंह गुर्जर की इस हुंकार पर रामप्यारी गुर्जर ने अपने खड्ग को चूमा, और उनके साथ समस्त महिला सैनिकों ने अपने शस्त्रों को चूमते हुये युद्ध का उदघोष किया। रणभेरी बज उठी और शंख गूंज उठे। सभी योद्धाओं ने शपथ ली की वे किसी भी स्थिति में अपने सैन्य प्रमुख की आज्ञाओं की अवहेलना नहीं करेंगे, और वे तब तक नहीं बैठेंगे जब तक तैमूर और उसकी सेना को भारत भूमि से बाहर नहीं खदेड़ देते।

युद्ध में कम से कम योद्धा हताहत हों , इसलिए महापंचायत ने छापामार युद्ध की रणनीति अपनाई। रामप्यारी गुर्जर ने अपनी सेना की तीन टुकड़ियाँ बनाई। जहां एक ओर कुछ महिलाओं पर सैनिकों के लिए भोजन और शिविर की व्यवस्था करने का दायित्व था, तो वहीं कुछ महिलाओं ने युद्धभूमि में लड़ रहे योद्धाओं को आवश्यक शस्त्र और राशन का बीड़ा उठाया। इसके अलावा रामप्यारी गुर्जर ने महिलाओं की एक और टुकड़ी को शत्रु सेना के राशन पर धावा बोलने का निर्देश दिया, जिससे शत्रु के पास न केवल खाने की कमी होगी, अपितु धीरे धीरे उनका मनोबल भी टूटने लगे, उसी टुकड़ी के पास विश्राम करने को आए शत्रुओं पर धावा बोलने का भी भार था।

20000 महापंचायत योद्धाओं ने उस समय तैमूर की सेना पर हमला किया, जब वह दिल्ली से मेरठ हेतु निकलने ही वाला था, 9000 से ज़्यादा शत्रुओं को रात मे ही कुंभीपाक पहुंचा दिया गया। इससे पहले कि तैमूर की सेना एकत्रित हो पाती, सूर्योदय होते ही महापंचायत के योद्धा मानो अदृश्य हो गए।

क्रोध में विक्षिप्त सा हुआ तैमूर मेरठ की ओर निकल पड़े, परंतु यहाँ भी उसे निराशा ही हाथ लगी। जिस रास्ते से तैमूर मेरठ पर आक्रमण करने वाला था, वो पूरा मार्ग और उस पर स्थित सभी गाँव निर्जन पड़े थे। इससे तैमूर की सेना अधीर होने लगी, और इससे पहले वह कुछ समझ पाता, महापंचायत के योद्धाओं ने अनायास ही उनपर आक्रमण कर दिया। महापंचायत की इस वीर सेना ने शत्रुओं को संभलने का एक अवसर भी नहीं दिया। और रणनीति भी ऐसी थी कि तैमूर कुछ कर ही ना सका, दिन मे महाबली जोगराज सिंह गुर्जर के लड़ाके उसकी सेना पर आक्रमण कर देते, और यदि वे रात को कुछ क्षण विश्राम करने हेतु अपने शिविर जाते, तो रामप्यारी गुर्जर और अन्य वीरांगनाएँ उनके शिविरों पर आक्रमण कर देती। रामप्यारी की सेना का आक्रमण इतना सटीक और त्वरित होता था कि वे गाजर मूली की तरह काटे जाते थे और जो बचते थे वो रात रात भर ना सोने का कारण विक्षिप्त से हो जाते थे। महिलाओं के इस आक्रमण से तैमूर की सेना के अंदर युद्ध का मानो उत्साह ही क्षीण हो गया था।

अर्धविक्षिप्त, थके हारे और घायल सेना के साथ आखिरकार हताश होकर तैमूर और उसकी सेना मेरठ से हरिद्वार की ओर निकाल पड़ी। पर यहाँ तो मानो रुद्र के गण उनकी स्वयं प्रतीक्षा कर रहे थे। महापंचायत की सेना ने उनपर पुनः आनायास ही उनपर धावा बोल दिया, और इस बार तैमूर की सेना को मैदान छोड़कर भागने पर विवश होना पड़ा। इसी युद्ध में वीर हरवीर सिंह गुलिया ने सभी को चौंकाते हुये सीधा तैमूर पर धावा बोल दिया और अपने भाले से उसकी छाती छेद दी।

तैमूर के अंगरक्षक तुरंत हरवीर पर टूट पड़े, परंतु हरवीर तब तक अपना काम कर चुके थे। जहां हरवीर उस युद्धभूमि में ही वीरगति को प्राप्त हुये, तो तैमूर उस घाव से कभी नहीं उबर पाया, और अंततः सन 1405 में उसी घाव में बढ़ते संक्रमण के कारण उसकी मृत्यु हो गयी। जो तैमूर लाखों की सेना के साथ भारत विजय के उद्देश्य से यहाँ आया था, वो महज कुछ हज़ार सैनिकों के साथ किसी तरह भारत से भाग पाया। रोचक बात तो यह है कि ईरानी इतिहासकार शरीफुद्दीन अली यजीदी द्वारा रचित ‘जफरनमा’ में इस युद्ध का उल्लेख भी किया गया है।

यह युद्ध कोई आम युद्ध नहीं था, अपितु अपने सम्मान, अपने संस्कृति की रक्षा हेतु किया गया एक धर्मयुद्ध था, जिसमें जाति , धर्म सबको पीछे छोडते हुये हमारे वीर योद्धाओं ने एक क्रूर आक्रांता को उसी की शैली में सबक सिखाया। पर इसे हमारी विडम्बना ही कहेंगे, कि इस युद्ध के किसी भी नायक का गुणगान तो बहुत दूर की बात, हमारे देशवासियों को इस ऐतिहासिक युद्ध के बारे में लेशमात्र भी ज्ञान नहीं होगा। रामप्यारी गुर्जर जैसी अनेकों वीर महिलाओं ने जिस तरह तैमूर को नाकों चने चबवाने पर विवश किया, वो अपने आप में असंख्य भारतीय महिलाओं हेतु किसी प्रेरणास्त्रोत से कम नहीं होगा।

ये कथा है अधर्म पर धर्म के विजय की, ये कथा है देवी दुर्गा के संस्कृति की अनेक दुर्गाओं की, ये कथा है तैमूर लँगड़े की सेना की हमारे वीर वीरांगनाओं के हाथों अप्रत्याशित पराजय की।

ॐ नमो नारायण

पृथ्वीराज सनातन

१५ फरवरी१९३२ अंग्रेज कलेक्टर ई. ओली के आदेश पर एक निहत्थी भीड़ पर एस.पी. डब्ल्यू. फ्लैग ने गोलियां चलवा दी थी

आपके योगदान कितने याद किये जायेंगे और कितने भुला दिए जायेंगे ये इसपर भी निर्भर करता है कि आपने उसे खुद कितना याद रखा है | नेताओं, स्थानीय विधायकों, कांग्रेस, जैसों का पाप इसमें फिर भी कम गिना जाना चाहिए | असली कसूरवार है रीढ़विहीन, गफलत में डूबी, जातिवादी, पलायन के शौक़ीन, उज्जड़, और अन्य कई संबोधनों से नवाजने योग्य बिहारी जनता | क्यों ? क्योंकि इन्हें अशर्फी मंडल याद नहीं, बसंत धानुक पता नहीं, शीतल और सांता पासी याद नहीं |

ये सिर्फ चंद नाम हैं इनके अलावा थे रामेश्वर मंडल, विश्वनाथ सिंह, महिपाल सिंह, सुकुल सोनार, सिंहेश्वर राजहंस, बद्री मंडल, गैबी सिंह, चंडी महतो, झोंटी झा | इनमें से किसी नाम का जिक्र सुना है ? नहीं सुना तो बता दें कि ये वो 13 लोग थे, जिनके शव की शिनाख्त हुई थी | इनके अलावा 31 शव ऐसे थे जिनकी शिनाख्त नहीं हो पाई थी | जो गंगा में बह गए उनका कोई हिसाब नहीं |

अंग्रेज कलेक्टर ई. ओली के आदेश पर एक निहत्थी भीड़ पर एस.पी. डब्ल्यू. फ्लैग ने गोलियां चलवा दी थी |

नहीं नहीं किसी जलियांवाला की बात नहीं कर रहे भाई | वहां जनरल डायर थे, और वहां लाशें बहाने के लिए गंगा कहाँ होती है ? ये घटना जलियांवाला बाग़ के बाद की है, 15 फ़रवरी 1932 की इस घटना में मारे गए ज्यादातर लोगों को लापता घोषित कर दिया गया था | बिलकुल उसी तरह बेरहमी से मारे गए लोगों का आज जिक्र करना भी किसी को जरूरी नहीं लगता |

मुंगेर आज बिहार का एक जिला है | कई बार जिन क्रांतिकारियों, जिन लेखकों को आप बंगाल का जानते-पढ़ते हैं वो इस वजह से भी है कि बिहार को बने हुए ही सौ साल हुए हैं | पुराने दौर में बंगाल माने जाने वाले मुंगेर, दरभंगा, भागलपुर जैसे इलाकों से अहिंसावादियों ने ही नहीं बल्कि कई बार सशस्त्र क्रांतिकारियों ने भी फिरंगियों की नाक में दम किया था | हालाँकि कोई भी कांग्रेसी नेता, 1920 से 1947 के दौर के स्वतंत्रता संग्राम में नहीं मारा गया, लेकिन आम जन ने अक्सर पुलिस की गोलियां झेली थी |

फ़रवरी 1932 में मुंगेर के शंभुगंज थाना में आने वाले सुपोर जमुआ में एक मीटिंग हो रही थी | श्रीभवन की इसी मीटिंग में तारापुर थाने पर तिरंगा फहराने की बात राखी गई | मुंगेर का ये इलाका पहाड़ी इलाका है | महाभारत कालीन कर्ण का क्षेत्र अंग देश माने जाने वाले इस इलाके में देवधरा पहाड़ और ढोलपहाड़ी जैसे इलाके हैं जो अपनी बनावट और जंगल की वजह से अक्सर क्रांतिकारियों को सुरक्षा देते थे | गंगा के दुसरे पार बिहपुर से लेकर बांका और देवघर तक के इलाकों में क्रांतिकारियों का प्रभाव काफी ज्यादा था |

15 फ़रवरी की सुबह होते होते तारापुर में भीड़ जमा होने लगी | दोपहर में जब ये लोग झंडे के साथ आगे बढे तो अंग्रेज कलेक्टर ई. ओली के आदेश पर एक निहत्थी भीड़ पर फिरंगी एस.पी. डब्ल्यू. फ्लैग ने गोलियां चलवानी शुरू कर दी | गोलियां चलती रही, लोग बढ़ते रहे और आखिर झंडा फहरा दिया गया | आश्चर्यजनक था कि गोलियां चलने पर भी लोगों ने बढ़ना नहीं छोड़ा ! बाद में और कुमुक आने पर पुलिस ने दोबारा थाने को अपने कब्जे में लिया |

तथाकथित “पंडित”, पूर्व प्रधानमंत्री नेहरु ने इस घटना पर 1942 की अपनी तारापुर यात्रा में 34 शहीदों का उल्लेख किया था और कहा था कि शहीदों के चेहरे पर लोगों के देखते ही देखते कालिख मल दी गई थी | बाद में कांग्रेस ने 15 फ़रवरी को “तारापुर शहीद दिवस” मनाने का प्रस्ताव पारित कर के इसकी घोषणा भी की थी | समस्या ये है कि इसमें पासी, धानुक, मंडल और महतो ही नहीं शहीद हुए थे | इसमें झा और सिंह नामधारी भी थे | तो दल हित चिंतकों के लिए इस मामले में रस नहीं होता |

बाकी जो जनता ने अपने ही बलिदानियों को भुलाया उस जनता को भी शत शत नमन !

मदन गड़रिया धन्ना गूलर आगे बढ़े वीर सुलखान,
रूपन बारी खुनखुन तेली इनके आगे बचे न प्रान।
लला तमोली धनुवां तेली रन में कबहुं न मानी हार,
भगे सिपाही गढ़ माडौ के अपनी छोड़-छोड़ तरवार।

अगर आपने ये चार लाइन पढ़ ली हैं तो शायद अंदाजा भी हो गया होगा कि ये विख्यात लोककाव्य “आल्हा-उदल” की हैं | ये किस दौर की थी ये अंदाजा करना भी मुश्किल नहीं है | लोक काव्य में उस दौर के जिन राजाओं का जिक्र आता है उसमें से एक पृथ्वीराज चौहान भी हैं | दिल्ली पर इस्लामिक आक्रमणों के शुरू होने के दौर के इस लोक काव्य की पंक्तियाँ आश्चर्यजनक हैं | नहीं अतिशयोक्ति अलंकार के कारण नहीं, इसमें मौजूद नामों के कारण |

ये युद्ध का जिक्र करते करते जिन योद्धाओं की बात करती है उनके नाम उनका दूसरा पेशा भी बता रहे हैं | गरड़िया, बारी, तेली, तमोली ! आयातित मान्यताएं तो ये स्थापित करने में जुटी होती हैं कि क्षत्रिय के अलावा बाकी सब को हथियार रखने-चलाने नहीं दिया जाता था | वो युद्ध में लड़ भी रहे हैं और उन्हें प्रबल योद्धा भी बताया जा रहा है ? इतिहास तो राजाओं की कहानी कहता है, ये राजा भी नहीं लग रहे आम लोगों के नाम क्यों हैं यहाँ ?

कहीं और से आई आयातित परम्पराओं की ही तरह भारत का इतिहास क्या सिर्फ राजाओं का इतिहास नहीं होता था ? क्या जिस ज़ात के होने की बात बार बार हिन्दुओं पर थोपी जाती है, उसमें ज के नीचे लगे नुक्ते के कारण उसका कहीं बाहर का रिवाज़ होने पर भी सोचना चाहिए ? आल्हा-उदल बुंदेलखंड के माने जाते हैं, लेकिन ये जाने माने लोक-काव्य तो आज उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश के कई इलाकों में सुना जाता है | जिसे बुंदेलखंड कहते हैं वो सीमाएं तो बदल चुकी |

फिर क्या वजह होती है कि किसी ने इन्हें किताबों की तरह छापा नहीं ? लिखा हुआ कहीं लोगों को दिखने ना लगे, लोग पढ़ कर सवाल ना करने लगें, ये वजह थी क्या ?

बरसों पहले यानि 1950 के दौर में कम्युनिस्टों के नेता थे पी.सी.जोशी | उन्होंने बरसों पहले ही प्रचार तंत्र के इस्तेमाल और विश्वविद्यालयों पर कब्ज़ा ज़माने के फ़ायदों का अंदाजा लगा लिया था | एक तो विश्विद्यालयों में पढ़ रहे युवाओं को आसानी से बहका कर अपने मतलब की लड़ाई में हथियार की तरह इस्तेमाल करना आसान हो जाता है | दुसरे ये कि शिक्षक या ज्ञानी माना जाने वाले व्यक्ति आम तौर पर भारत में बहुत सम्मानित होते हैं | इनपर पुलिस भी आसानी से हाथ नहीं डालती | ऐसे में काम को वैध और अवैध दोनों तरीकों से आगे बढाया जा सकता है |

प्रचार तंत्र की मजबूती से क्या किया जा सकता है इसका अंदाजा लगाना हो तो कभी दो-चार इतिहास की किताबों का नाम याद करने की कोशिश कीजिये | पूरी संभावना है कि आपको वामपंथी धर्म में श्रद्धा रखने वाले कुछ उपन्यासकारों की किताबें ही याद आएँगी | ऐसा नहीं है कि अन्य विचारधारा के लोगों ने किताबें नहीं लिखी | दरअसल जैसे ही आप कहेंगे कि नहीं वो इतिहास अधूरा है, या सही नहीं है, वैसे ही आपका मजाक उड़ाया जाने लगेगा | आपसे पुछा जायेगा कि क्या ओक की किताबों से पढ़ते हो ? या ऐसे लोगों की किताबों से जो अपनी किताबें खुद ही छपवाते हैं ?

अगर किसी आयातित विचारधारा के लोगों का लिखा फर्जी इतिहास आप नहीं पढ़ना चाहते, अपनी रूचि की किताबें पढना चाहते हैं तो आपको दुसरे भारत के लेखकों की किताबें उठानी चाहिए | अगर प्राचीन भारत पर पढना हो तो उपिन्दर सिंह की लिखी अच्छी किताबें हैं, नयनजोत लाहिरी ने पुरातत्व पर लिखा है, भक्ति आन्दोलन पर विजय रामास्वामी की किताबें हैं, संजय सुब्रमण्यम ने शुरूआती दौर के ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर लिखा है, चेतन सिंह ने मुग़ल साम्राज्य के पतन पर, पश्चिमी भारत के सामाजिक इतिहास पर सुमित गुहा ने लिखा है, चकित्सा के सामाजिक इतिहास पर सीमा अलावी की किताब देखिये | नीरजा गोपाल जयल ने नागरिकता पर लिखा है, अभी हाल में भी आर्थिक इतिहास पर तीर्थंकर रॉय ने किताबें लिखी हैं और शोषण-गुलामी के भारत पर कैसे प्रभाव पड़े वो समझाया है | महेश रंगराजन जंगलों के इतिहास पर लिखते हैं और ए.आर. वेंकताचालाप्ति दक्षिण भारत की संस्कृति पर |

इतना ढेर सारा ना भी पढ़ना हो तो कम से कम तीर्थंकर रॉय का लिखा आर्थिक इतिहास पढ़िए | हिन्दुओं का समाज जिस छुआ-छूत और जातिवाद के नाम से आज भी शर्मिंदा किया जाता है, वो कैसे पनपा होगा, ये समझ में आने लगेगा |

✍🏻आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित

By- Ashvani tiwari

आइये प्राचीन अर्थशास्त्र और अर्थव्यवस्था के कुछ और पहलुओं की चर्चा करते हैं-

सिर्फ भारत ही ऐसा देश है जहाँ आर्थिक मंदी या महामारी से लॉक-डाउन की स्थिति में भी ग़रीब से ग़रीब व्यक्ति भी लम्बे अंतराल तक जूझ सकता है ..

जापान जैसे देशों में यह अवधि है — दो दिन ..

इतालियन माइनो, हर्ष मंदर, सिद्धार्थ वरदराजन, बरखा दत्त, जीन द्रेज, अमर्त्य सेन और इनके जैसे देशद्रोही कुछ भी कहें – हम उनकी परवाह नहीं करते ..
कोरोना वायरस महामारी का कोहरा जब छंटेगा — तो सिर्फ एक देश खड़ा मिलेगा ..

यही प्राचीन देश — राम/ कृष्ण/ परशुराम/ भीष्म/ अयप्पा का देश ..

✍🏻भुवन सोम

आइये प्राचीन अर्थशास्त्र और अर्थव्यवस्था के कुछ और पहलुओं की चर्चा करते हैं-

च से चाणक्‍य,,, जी हां !
कौटिल्य अर्थशास्त्र
चाणक्‍य के अर्थशास्‍त्र के प्रणयन के उद्देश्‍य की प‍ीठिका के रूप में जो पंक्ति लिखी गई, उसको पढ़कर एक बार तो हंसी आती है, मगर जीवन में देखते जाएं कि कितना कटु सच उस राजनीति के आचार्य ने लिखा है। जातकों को आधार मानें तो 600 ई. पू. तक भारत में राजनीति के मूल सिद्धांतों के रूप में अर्थशास्‍त्र पढाया जाता था।
आचार्य उष्‍ण के राजनीतिशास्‍त्र संबंधी ग्रंथ को ‘दण्‍डनीतिशास्‍त्र‘ कहा जाता था और वृहस्‍पति के ग्रंथ को ‘अर्थशास्‍त्र’। चाणक्‍य ने अपने शास्‍त्र के प्रणयन में पूर्ववर्ती अर्थशास्‍त्र के 18 आचार्यों के मतों को उद्धृत किया है। कहीं पर उनको स्‍वीकारा तो कहीं पर नकारा और अपना मत प्रतिपादित करने का प्रयास किया।
चाणक्‍य ने कहा था–

”मेरा ये शास्‍त्र उनके लिए नहीं है जो समझदार है और ये उनके लिए भी नहीं जो नासमझ हैं बल्कि ये उन चंद चतुरों के लिए हैं जो दोनों को ही हांक सकते हैं।”

ये अठारह आचार्य थे-

1. मनु,

2. वृहस्‍पति,

3.उशनस या शुक्र,

4. भारद्वाज या द्रोण,

5. विशालाक्ष,

6. पाराशर,

7. पिशुन,

8. कौणपदंत,

9. वातव्‍याधि या उद्धव,

10.बाहुदंती पुत्र,

11.कात्‍यायन,

12. कर्णिका भारद्वाज,

13. चारायण,

14. घोटमुख,

15. किंजल्‍क,

16. पिशुनपुत्र,

17. अम्‍भीयक्ष और

18. अज्ञातकर्तक जिसका नाम तब तक लुप्‍त हो गया था, शायद वह आचार्य उष्‍ण हो।

तक्षशिला के निवासी चाणक्‍य ने अपने मत को बहुत कठोर लिखा और सच लिखा, जो कुछ लिखा, वह आज भी देखा जा सकता है। मगर, चाणक्‍य को महत्‍वहीन करने का प्रयास जल्‍द ही होने लग गया। हर्षवर्धन के दरबारी बाणभट्ट (700 ई.) जो पुराणों का प्रशंसक था, ने कौटिलय के अर्थशास्‍त्र की निंदा ही की है और कहा है कि उन लोगों का क्‍या कहा जाए तो चाणक्‍य की प्रशंसा करते हैं…। दसवीं सदी तक स्‍कंधावार बनाने के उद्देश्‍य से अर्थशास्‍त्र के मतों काे देखने का निर्देश राजा भाेज करते हैं। मगर उसके अन्‍य मत समाज में रहे हों, यह विदित नहीं होता।

हां, इसी काल के आसपास बहुत चतुराई के साथ चाणक्‍य की नीति को जरूर लिखा गया, और वे श्‍लोक चुने गए जो सुभाषित रहे हैं। कई श्‍लाेक तो भर्तृहरि के लिए गए और कुछ हितोपदेश आदि से…। ऐसा क्‍यों किया गया, यह कहने की जरूरत नहीं। यही नही, हमारे यहां तो चाणक्‍य के अनुयायी कामन्‍दक को भी खारिज कर दिया गया, तभी तो उसका पूरा ग्रंथ बाली द्वीप में पाया गया जो वहां 8वीं सदी के पहले तक पहुंच गया था।

… मगर हां, चाणक्‍य ने जो कुछ कहा, वह इतना प्रासंगिक है कि जब यह ग्रंथ मैसूर के श्री शामा शास्‍त्री और बाद में अनंतशयन ग्रंथावली के संपादक श्री तरुवागम गणपति शास्‍त्री के प्रयासों से समग्रत: सामने आया, 1919 ई. तक, तो रुस में साम्‍यवादी क्रांति हो रही थी। इस ग्रंथ की अधिकांश प्रतियाें की खपत रूस वालों ने की, मगर भारत में आज तक यह ग्रंथ घर-घर नहीं पहुंचा। यदि इस अर्थशास्‍त्र के विचारों का प्रचार निरंतर भारतीय समाज में रहता तो हमारी सांस्‍कृतिक मानसिकता में आतंक को जवाब देने की त्‍वरा रहती, परामर्श देने की बजाय पांव पर खड़े होने की हिम्‍मत रहती और… वह सब कुछ होता जिसकी आज जरूरत है…क्‍या, यह जरूर सोचियेगा।

✍🏻श्रीकृष्ण जुगनू

प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारक मनु

प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्रियों के आर्थिक विचारों से आधुनिक युग के अर्थशास्त्री सर्वथा अपरिचित से प्रतीत होते हैं। जिस एक ‘श्रम सिद्धान्त’के कारण ही ‘एडमस्मिथ’को अर्थशास्त्र का पिता कहा जाता है, वह श्रम विभाजन भी प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारकों के लिए कोई नवीन विचार एवं नवीन दिशा नहीं है। प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारकों ने आर्थिक विकास के लिए जहां उद्योग को महत्वपूर्ण एवं प्रथम स्थान दिया वहां दूसरी ओर यह भी अनुभव किया कि केवल एक व्यक्ति ही आर्थिक योजनाओं को सरल बनाने में एकाकी समर्थ न हो सकेगा।

अत: उन्होंने श्रम के विभाजन के लिये वर्णव्यस्था को आर्थिक विकास के लिए आवश्यक माना था। प्राचीन भारतीय सभी आर्थिक विचारकों के आर्थिक विचारों को अध्ययन करने पर अर्थशास्त्र के अध्येता यह अनुभव करेंगे कि सभी प्राचीन अर्थशास्त्रियों ने श्रम एवं श्रम विभाजन में वर्णव्यवस्था को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। ग्रीक आदि देशों के इतिहास का अनुशीलन करने पर कार्य विभाजन के लिये वहां भी भारतीय वर्णव्यवस्था से मिलते जुलते सिद्धान्तों का प्रतिपादन दिखाई देता है।

अत: इस प्रकार के श्रम और श्रम विभाजन के तथ्यपूर्ण आधारों से यह प्रमाणित होता है कि ‘एडमस्मिथ’से पूर्व प्राचीन भारत ने श्रम और श्रम का सिद्धान्त आर्थिक विकास के रूप में प्रचलित हो चुका था इस आधार पर ‘एडमस्मिथ’का सिद्धान्त प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्रियों के लिये कोई नवीन चीज नहीं, हां उन लोगों के लिये पाश्चात्य अर्थशास्त्री प्ररेणा के स्रोत हो सकते हैं जिन्होंने प्राचीन भारतीयों के आर्थिक सिद्धान्तों एवं आर्थिक प्रणालियों का अवलोकन न किया हो।

मनु को प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारकों में प्रथम स्थान दिया गया है। आर्थिक सुव्यवस्था द्वारा मनु ने प्रजावर्ग के कल्याणार्थ नियमों का प्रथम वार प्रतिपादन किया। अत: मनु को प्रथम नियम प्रवर्तक माना गया है। अर्थ जगत के व्यवहार के लिए आवश्यक है। अत: प्रथम आर्थिक विचारक मनु ने अर्थ प्राप्ति के साधनों की प्राप्ति उद्योग, कर व्यवस्था, मूल्यनिर्धारण, वस्तु वितरण, व्यापार, कृषि आदि पर सुव्यवस्थित रूप से नियन्त्रण रख कर प्रजा के आर्थिक जीवन को उन्नत करने पर विशेष ध्यान दिया है।

मनु ने समाज की अराजकता वाली स्थिति में समाज के कल्याण के लिये उपकार कर उचित व्यवस्था लाने और राज्य के आर्थिक जीवन को उन्नत करने में बहुत बड़ा काम किया। शोषण की मनोवृत्ति को दूर कर पोषण का कार्य प्रारम्भ किया और सभी प्रजाजनों की आर्थिक स्थिति उन्नत करने का प्रयास किया।

अर्थव्यवस्थापक ‘मनु’ ने जीविका को चार प्रकार का माना है

1. ऋत

2. अमृत

3. मृत

4. प्रमृत

1. किसानों के खेतों में फसल काटने के पश्चात् छूटे हुए अन्न को पाना ऋत कहलाता है।

2. बिना मांगे जो मिल जाये उसे ‘अमृत कहते हैं।

3. भिक्षा मांग कर जो मिलता है उसे ‘मृत’कहते हैं।

4. कृषि से उत्पन्न होने वाले अर्थ को ‘प्रमृत’कहा गया है।

जिस आजीविका को करने में सम्मान और सत्य बना रहे वही वृत्ति सर्वोत्तम मानी गई है। जीवन रक्षा के लिए मनुष्य को कुछ न कुछ कार्य करना ही पड़ता है किन्तु उस जीविका से क्या लाभ जिसमें मनुष्य को सुख और प्रसन्नता न मिल सके। दूसरों का अहित करने या दूसरों को कष्ट पहुंचा कर यदि अपनी आजीविका चलाई तो क्या लाभ। निन्दनीय कार्यों से वृति चलाना गलत माना गया है।

जैसे:-
मनुष्य को वृत्ति अर्थात् आजीविका के लिए कभी भी लोक के विरुद्ध्र कार्यों को नहीं अपनाना चाहिये। ऐसा करने से अन्य सामाजिकों पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा और सामाजिक नियमों का उल्लंघन होगा। व्यवस्था में इस प्रकार की बाधा आते ही आर्थिक विकास रुक जायेगा और लोग सही मार्गों को छोड़कर बुरे मार्गों की ओर प्रवृत होंगे।

अत: प्राचीन भारतीय अर्थ व्यवस्थापक मनु ने अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये हैं:-

‘जीविका के लिए समाज विरुद्ध कार्यों का कभी भी आश्रय ग्रहण न करें’

आर्थिक विकास, अर्थप्राप्ति और आर्थिक योजनाओं को सफल बनाने में अच्छे शासक का बहुत बड़ा हाथ रहा है। इसलिए प्रत्येक प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारक ने आर्थिक विवेचन करने से पूर्व शासक-राजा को अपनी रचनाओं में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान दिया है। उसे शासक का सर्वोच्च पद देकर सम्मानित किया और उसे जनता के लिए आदर्श मानकर विद्वान, बुद्धिमान और व्यवहार कुशल होना आवश्यक माना है।
अति प्राचीन समय से ही देखा गया है कि अराजकता की स्थिति में संसार के किसी भी राष्ट्र ने उन्नति नहीं की है। सुख से जीवन यापन करने के लिए किसी शक्ति सम्पन्न शासक की आवश्यकता प्रतीत हुई। सुशासक के होने से शासन सुव्यवस्थित रूप से चलने लगा। समस्त प्रजावर्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उद्योग धन्धों को अपनाया जाने लगा और जगत व्यवहार और जीवन को सुखमय बनाने के लिए ‘अर्थ’को महत्व मिला।

अर्थ का संग्रह कैसे किया जाये ? जिस अर्थ को जीवन यापन के लिए इतना आवश्यक माना गया है, अन्तत: वह अर्थ कैसे और कहां से प्राप्त होगा? प्रथम शासक और अर्थव्यवस्थापक मनु ने समाज में अर्थव्यवस्था स्थापित करने के लिए मानवीय सिद्धान्तों पर अर्थ संग्रह करने की व्यवस्था बताई है। निन्दनीय और समाज विरोधी कार्यों से अर्थ उपार्जन करना अत्यधिक बुरा एवं शोषणयुक्त माना है। अत: इन उपायों द्वारा व्यक्ति को अर्थ का संचय करना चाहिए।
”अपने जीवन को यापन करने के लिए अनिन्दनीय कार्यों और शरीर को कष्ट न देकर अर्थ संचय करना चाहिये।”

प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्थापक मनु ने जहां जीवन में अर्थ का अत्यधिक महत्व माना है। वहां दूसरी ओर बुरे उपायों और मार्गों द्वारा अर्थ उपार्जन को अत्यधिक बुरा भी माना है। अपने अच्छे कामों द्वारा मनुष्य को सामाजिक व्यवस्था को सुरक्षित रखने के लिए अर्थ प्राप्त करने पर बल दिया है। प्राय: यह भी देखा गया है कि बुरे मार्गों से अर्थ एकत्र करने में व्यक्ति अपने शरीर को अधिक कष्ट देता है और समाज के भय से परेशान रहता है एवं उपार्जित अर्थ का सुखपूर्वक उपभोग भी नहीं कर सकता है, कारण क्योंकि उसके उपार्जन के मार्ग समाजोचित नहीं हैं। अत: मनु ने निन्दनीय और शरीर को कष्ट देने वाले उपायों से अर्थ उपार्जन को बहुत बुरा माना है।

भिक्षा मांग कर या चोरी करके कोई भी व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र अपनी आर्थिक उन्नति नहीं कर सकता है। जीवन में मनु ने उद्योग के द्वारा जीवन निर्वाह करने वाली वृत्ति को ही समाज में मान्यता देकर सम्मानित स्थान दिया है। कुत्ते की वृत्ति, दुष्ट चेष्टाओं द्वारा अर्थ प्राप्त करना निन्दनीय माना है। उद्योगी व्यक्ति अपने उद्योग के बल पर ही उन्नति करता हुआ समाज में सम्मान पाता है और दूसरों को सही मार्ग दिखाता है। दूसरों पर अश्रित रहकर अधिक दिन तक सुख से जीवित नहीं रह सकता है।

अर्थ प्राप्ति, उसका संरक्षण और वितरण
प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्थापक मनु ने शासक को अर्थ के विषय में इस प्रकार के निर्देश दिये हैं जिससे राष्ट्र को आर्थिक संकट का सामना न करना पड़े और अर्थ के अधिक होने पर उसका समाज के अच्छे लोगों में वितरण कर देना चाहिये। जैसा कि मनु का विचार है कि- ”अप्राप्य अर्थ को प्राप्त करने का प्रयत्न करें, प्राप्त अर्थ की यत्नपूर्वक रक्षा करे, रक्षित अर्थ की बुद्धि के लिए यत्न करे और अधिक वृद्धि से प्राप्त हुए अर्थ को जरूरतमंदों में बांट दें।”

इस प्रकार के अर्थ संग्रह करने से प्रजा में सही वितरण, उचित संग्रह और वास्तविक रूप से अर्थ की वृद्धि होती है। जनता को इस प्रकार की अर्थनीति में शोषण, प्रपीडऩ की भावनाएं नहीं दिखती और इसक विरुद्ध किसी को कुछ कहने का अवसर नहीं मिलता। अपितु अच्छे लोगों को इससे प्रोत्साहन मिलता है और लोगों में उचित रीति से अर्थ का वितरण होता है जिससे प्राप्तकर्ता उसका सही उपभोग करता है।
अर्थ प्राप्ति का अच्छे शासक को इस प्रकार चिन्तन करना चाहिए।

अर्थ प्राप्त करने वाले व्यक्ति, समाज, शासक और राष्ट्र को अर्थ प्राप्ति के लिए एकाग्रता, शांत चित्त और पूर्ण स्वहित को छोड़कर उद्योग करना होगा। बिना उद्योग के संसार में कोई भी कार्य कैसे सफल हो सकता है? प्रत्येक कार्य की अपनी अपनी प्रक्रियायें होती हैं। उनका समय और स्थिति के अनुसार परिपालन करने से ही कार्य की सिद्धि होगी। वह अर्थ प्राप्ति के साधन कैसे सिद्ध किये जायें?

उसके अर्थ चिन्तन पर अर्थव्यवस्थापक मनु ने अपने विचार इस प्रकार व्यक्त करते हुये अर्थ प्राप्त करने के उपाय बताये हैं:-

”बगुले के समान अर्थ प्राप्ति का चिन्तन करें, शेर के समान पराक्रम करें, भेडिय़ों के समान शत्रुओं का संहार करें और खरगोश के समान बुद्धिमत्ता से संकटों से पार हो जायें।

विद्या का महत्व

विद्याओं के ज्ञान से ही मनुष्य अधिक सीखता है और उसे विस्तृत जानकारी हो जाती है। जैसे मनु ने कहा है:- ”जैसे-जैसे मनुष्य शास्त्रों के सन्निकट जाता है वैसे-वैसे वह विशेष ज्ञान प्राप्त कर लेता है और उसे वह अच्छा लगने लगता है।
शासन को सर्वप्रथम इन चार विद्याओं को उन विषयों के विद्वानों से ग्रहण करना चाहिये। विषयों के पारंगत विद्वान व्यक्ति ही वास्तविकता और कम समय में विषय का ज्ञान करा सकेंगे।

”अर्थ प्राप्त करने वाले व्यक्ति तीनों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, और साम को त्रयी के ज्ञाता से अध्ययन करे, दण्डनीति,-आन्वीक्षकी और वार्ता को सीखे।” प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्रियों ने चार विद्याओं को इस प्रकार माना है। 1. त्रयी 2. दण्डनीति 3. आन्वीक्षकी 4. वार्ता। मनु ने अपनी स्मृति में उसी क्रम से चार विद्याओं को माना है। शेष आचार्यों ने आन्वीक्षकी, त्रयी वार्ता और दण्डनीति इस क्रम से विद्याओं को माना है।

इस प्रकार अर्थ प्राप्ति एवं जीविकोपार्जन में विद्या को महत्वपूर्ण माना है क्योंकि यह मानव की त्रुटियों को दूर करती है और व्यवहारिक बनाती है। त्रयी से धर्म विषयक बातों का ज्ञान होता है। दण्डनीति से नीति, अनीति का ज्ञान होता है। जिज्ञासा से तर्क और विज्ञान का ज्ञान होता है। वार्ता से अर्थ, अनर्थ का पता चलता है।

इस प्रकार ये चार प्रकार की विद्यायें बताई गई हैं।
प्रथम प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारक मनु ने भी चारों पदार्थों को जीवन के आर्थिक विकास में अत्यन्त महत्वपूर्ण माना है-

1. धर्म

2. अर्थ

3. काम

4. मोक्ष।

इन चार पदार्थें का मानवीय जीवन में अत्यन्त महत्व माना गया है। इनके एक के बिना भी जीवन अधूरा और अपूर्ण माना जाता है। पूर्ण रूप से परितृप्त होने के पश्चात ही मानव मुक्ति अर्थात मोक्ष का अधिकारी माना जाता है। धर्म (माननीय नियमों) का परिपालन करने के पश्चात ही व्यक्ति अर्थ की प्राप्ति कर सकता है। समाज के निर्धारित नियमों के अनुसार प्राप्त किया हुआ अर्थ ही वृद्धि और उपभोग के योग्य होता है।

अर्थ संचय, अर्थ प्राप्ति और अर्थसंग्रह के पश्चात व्यक्ति उसका उपभोग करता है। उपभोग को ही काम- इच्छाओं की पूर्ति का साधन माना गया है। धर्म, अर्थ, काम इन तीन पदार्थों की प्राप्ति और पूर्ण होने के पश्चात ही भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार व्यक्ति मुक्ति मोक्ष का अधिकारी माना जाता है। इन तीन धर्म, अर्थ, काम का उपभोग करने के पश्चात ही मनुष्य को मोक्ष प्राप्ति की इच्छा होती है। जैसे मनु ने कहा है:-

”इस प्रकार चार तरह की विद्यायें और चार पुरुषार्थों का प्रयोजन जाने तथा आलस्य के बिना इन सभी का नित्य राजा को पालन करना चाहिये।”

इस उद्धरण से चार विद्यायें

1. आन्वीक्षकी

2. त्रयी

3. वार्ता

4. दण्डनीति

चार पुरुषार्थ

1. धर्म

2. अर्थ

3. काम

4. मोक्ष

का परिपालन करने के लिए राजा तक को निर्देश दिये गये हैं। साधारण जनता की तो बात ही क्या। इस प्रकार के श्लोक से उस युग की प्रवृत्ति और भारतीय दृष्टिकोण का विशद ज्ञान होता है।
वेतन का प्रतिमान

कार्यकर्ता अपने काम करने के पश्चात क्या चाहता है? वेतन, (मजदूरी) भोजन और वस्त्र चाहता है। श्रमिक उचित वेतन मिलने पर ही उत्पादन की वृद्धि में पूर्ण योगदान देता है। आज के युग में श्रमिक हड़ताल करता है, कम काम करता है क्योंकि उसे कार्य के अनुरूप वेतन नहीं मिलता। वस्तुत: श्रम का महत्व समझते हुए श्रम के अनुकूल एक वेतन क्रम निर्धारित कर भोजन वस्त्र और जीवन की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उचित वेतन की व्यवस्था होनी चाहिये।

इस प्रकार वेतन की समस्याओं का समाधान करने के लिए प्राचीन भारतीय अर्थ व्यवस्थापक मनु ने अपनी मनुस्मृति में वेतन, स्थान आदि इस प्रकार स्पष्ट व्यवस्था दी है।

मनु ने कार्य के अनुसार कार्य करने वालों को दो श्रेणियों में विभक्त किया हुआ था:

1. उत्कृृष्ट – अच्छा और उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य करने वाले को कहते हैं।

2. अनुत्कृष्ट – साधारण और छोटा-मोटा कार्य करने को अनुत्कृष्ट कहते हैं।

मनु ने इस प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट कार्यों के अनुसार कार्यकत्ताओं को उनके श्रम के अनुसार वेतन देने की ऐसी व्यवस्था निर्धारित की हुई थी:-
”अनुत्कृष्ट (सामान्य) कार्य करने वालों को (उस युग का) एक पण तथा छह मास में वस्त्र और प्रतिमास एक द्रोण (उस युग का अनाज तोलने का माप 40 सेर अर्थात आधुनिक युग का 36 किलो) अनाज दें। उत्कृष्ट कार्य करने वाले को 6 पण प्रतिदिन वेतन, वस्त्र और अनाज उसी प्रकार दें।”

इस प्रकार के उदाहरण से विदित होता है कि राज्य की ओर से आजीविका का पूर्ण प्रबन्ध होता था और जो लोग जैसा कार्य जानते थे उन्हें वैसा ही कार्य एवं उस कार्य के अनुरूप वैसा ही वेतन, शरीर रक्षा के लिए पर्याप्त अन्न और शरीर के अच्छादन के लिए वर्ष में दो बार वस्त्र दिये जाते थे। ऐसी व्यवस्था होने पर आर्थिक संकट का किसी को भी सामना न करना पड़ता था और श्रमिकों और मालिकों का परस्पर का कोई झगड़ा ही न होता था।

राष्ट्र की आर्थिक व्यवस्था में बाधा पहुंचाने वालों को दण्ड

जिस राष्ट्र में शासक जितना ही दुर्बल या स्वार्थी होगा उस राष्ट्र की आर्थिक वयवस्था में स्वार्थी अधिकारी जनता को कष्ट देकर उन व्यवस्थाओं में से अर्थ प्राप्त करना चाहते हैं। सर्वोच्च शासक के सतर्क न रहने पर ही अधिकारियों को जनता से किसी भी कार्य करने का धन लेने का साहस होता है। यदि आर्थिक योजनाओं का अर्थ अधिकारी अपहरण करने लगेंगे तो वे योजनायें कैसे कार्यान्वित होंगी?

अत: अर्थ व्यवस्थापक मनु ने अर्थव्यवस्था में बाधा पहुंचाने वालों को दण्ड देने की व्यवस्था दी है:-

”प्राय: शासक के अधिकारी लोग प्रजा जनों का धन लेने वाले होते हैं, अत: अच्छे शासक को उनसे प्रजा की रक्षा करनी चाहिये।”

राज्याधिकारी अच्छा वेतन पाने पर भी आर्थिक योजनाओं, अर्थसहायता और अर्थ संग्रह के कार्यों में स्वार्थवश जनता से धन लेकर काम करते हैं। ऐसे अधिकारी राष्ट्र के शत्रु हैं। अत: राष्ट्रीय लाभ हेतु इन्हें कठोर दण्ड देना अर्थ व्यवस्थापक मनु ने परामावश्यक समझा। राष्ट्र के बड़े-बड़े कार्यों में काम करने वालों से यदि अधिकारी उनसे धन लेते हैं तो उसका प्रभाव राष्ट्र पर ही पड़ता है। धन देने वाला भी उस कार्य को अच्छे प्रकार से नहीं करेगा और करेगा तो खराब बनायेगा।

जैसे-सड़कों का पुलों का और भवनों का निर्माण एवं व्यापार आदि कार्यों में।

मूल्य निर्धारण
मुनाफाखोरी, मनमानी भाव वृद्धि और व्यापारियों की शोषण वृत्ति को रोकने के लिए प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्रियों ने मूल्य निर्धारण व्यवस्था को अपनाया हुआ था। प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारकों का मुख्य उदेद्श्य यह रहा कि राष्ट्र में क्रेता को अपने धन का, विक्रेता को अपने उत्पादन का और व्यापारी को उसकी पूंजी एवं परिश्रम का उचित मूल्य मिलना चाहिए। अत: वस्तुओं के मूल्य का निर्धारण किस प्रकार किया जा सकता है? वस्तुत: वस्तुओं का वास्तविक मूल्य निर्धारण शासक ही कर सकता है।

शासक को, उपभोग करने वाली जनता, उत्पादन करने वाले कृषक और विक्रय करने वाले व्यापारियों की सुख, सुविधा, हानि और लाभ का ध्यान रखते हुए अर्थव्यवस्थापक मनु ने इस प्रकार व्याख्या बताई है:
”आगम, (आयात) निर्गम, (निर्यात) स्थान और सामान के आने जाने की दूरी का, वृद्धि (लाभ) क्षय (हानि) दोनों का एवं उसके सम्पूर्ण खर्चों का ध्यान रखते हुये बाजार में सामान को क्रय-विक्रय करावें।’ इस प्रकार व्यापार करने वालों के अदम्य उत्साह को देखकर उन्हें उचित लाभ देते हुये अधिक लाभ लेने की प्रवृत्ति (मुनाफाखोरी) को रोकना एवं जनता के प्रत्येक व्यक्ति को सुगमता से वास्तविक मूल्य पर जीवनोपयोगी सामग्री उपलब्ध हो सके और सभी के कल्याणार्थ इस प्रकार की व्यवस्था अपनायी गयी थी।

कृषि और उसका महत्व

प्राचीन भारतीय अर्थ व्यवस्थापक मनु ने वार्ता को अर्थ प्राप्ति का मूल कारण माना है। वैदिक काल से ही भारत कृषि प्रधान देश रहा है और आज भी जीवनोपयोगी खाद्य सामग्री कृषि ही हमको देकर हमारा पोषण कर रही है। प्राचीन काल में भी कृषि का महत्व था और आधुनिक विकासशील जगत में भी कृषि का महत्व स्वीकार किया गया है। उद्योग के बल से ही व्यक्ति इस कृषि को उपजाऊ बनाकर अधिक पशुओं की खाद देकर, अच्छी प्रकार हल चलाकर उत्पादन बढ़ाता है। मनुष्य की प्राणरक्षा के लिये अन्न की ही सर्वप्रथम आवश्यकता है। अन्न की उत्पत्ति कृषि के द्वारा ही होती है। अत: कृषि का महत्वपूर्ण स्थान निर्धारित किया गया है। इसी लिये जीवन को अन्नमय प्राण माना गया है।

गांवों के निकट गोचर भूमि का महत्व

पशु का कृषि और मनुष्य के जीवन में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। अत: उस पशुधन की रक्षा के लिये और उसके जीवन यापन के लिये गोचर भूमि की भी परमावश्यकता है। पशु धन का वार्ता में प्रयोग में प्रयोग हुआ है। पशु के बिना खाद और खाद के बिना अच्छी कृषि की कल्पना नहीं की जा सकती। पशु के बिना दूध, घी भी मनुष्य प्राप्त नहीं कर सकता है। जिस प्रकार मनुष्य के लिये अन्न की आवश्यकता है, ठीक उसी प्रकार पशुओं को जीवित रखने एवं उनकी वंशवृद्धि करने के लिये उनके चारा आदि का भी ध्यान रखना होगा। पशुओं के लिये प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारक मनु ने गोचर भूमि छोडऩे की व्यवस्था दी है। गोचर भूमि में पशु खुले में घूमकर चरते हैं, जो उनके स्वास्थ के लिए जरूरी है। इससे दूध की मात्रा और गुणवत्ता दोनों बेहतर होती हैं। प्राचीन काल में पशुओं के लिये गोचर भूमि अनिवार्य रूप से छूटी रहती थी। आज भी देश के अनेक गांवों में पशुओं के लिए ऐसी व्यवस्था है।

”गांव के चारों ओर सौ धनुष भूमि अथवा तीन बार लकड़ी को लेकर फेंकने में जितनी दूर वह चली जाये, उतनी दूर तक और नगर के भी उसी प्रकार चारों ओर पशुओं के लिये भूमि छोड़ देनी चाहिये।” आर्थिक व्यवस्था को ध्यान में रखते हुये प्राचीन भारतीय अर्थ व्यवस्थापक मनु नें ‘वार्ता’ के अनुरूप अर्थ प्राप्ति के साधनों पर कितनी अच्छी प्रकार नियन्त्रण रखा हुआ था।

वार्ता और वैश्य वर्ग

प्राचीन भारतीय अर्थ व्यवस्थापक मनु ने वर्ण व्यवस्था का विवेचन करते हुये वैश्य के कर्तव्यों में वार्ता शब्द द्वारा ज्ञात होने वाले अर्थों को स्पष्ट किया है। वर्णों के कर्तव्यों का वर्णन करते हुये वैश्यों को ही ‘वार्ता’ से सम्बन्धित सभी कार्यों को सम्पन्न करने का अधिकार दिया है। इससे पता चलता है कि सामाजिक व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिये कार्य विभाजन योग्यता के अनुरूप किया हुआ था।
”पशुओं की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेदों का अध्ययन करना, व्यापार करना, व्याज (कुसीद) एवं कृषि करना वैश्यों के कार्य हैं।”मनुस्मृति के ”आठवें अध्याय में मनु ने यह व्यवस्था दी है कि वैश्यों से वाणिज्य, कुसीद (ब्याज पर ऋण देना) कृषि और पशुओं का रक्षण, परिपालन एवं सेवकों से द्विजातियों की सेवा करावे।”

इस प्रकार के उदाहरणों से अवगत होता है कि वार्ता शब्द कितने विस्तृत अर्थों में प्रयुक्त होता था और आधुनिक अर्थशास्त्र में कृषि अर्थशास्त्र एवं वाणिज्य अर्थशास्त्र दो विषय अलग-अलग बन गये। उस युग में कृषि, पशु, व्यापार और ऋण पर अर्थ वितरण का अच्छा प्रभाव था। वैश्य वर्ग के हाथ में वार्ता में वर्णित वस्तुओं का पूर्ण दायित्व था। वैश्य वर्ग समाज में अर्थशास्त्र में वर्णित जीवन सम्बन्धी समस्त वस्तुओं के अभाव की पूर्ति करता था। यदि चिन्तन कार्य करने वाला अपने ज्ञान से समाज के अज्ञान को दूर करता था तो शक्ति सम्पन्न वर्ग अपनी अर्थ की शक्ति से समाज के समस्त अभावों की पूर्ति करता था। इस प्रकार समाज के प्रत्येक व्यक्ति की उपार्जित शक्ति से समाज को बहुत बड़ा लाभ होता था।

उसी का फल था कि राष्ट्रीय एकता, सामाजिक संगठन और व्यक्ति के विकास में किसी प्रकार का संकट उपस्थित नहीं होता था। इस प्रकार के प्रसंगों से पाश्चात्य आर्थिक विचारकों से प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारकों को तुलनात्मक रूप से देखा जाये तभी प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारकों के विशद ज्ञान का पता चलता है। दुर्भाग्य का विषय है कि हमारे विचारकों के विशद ज्ञान का पता चलता है। दुर्भाग्य का विषय है कि हमारे भारतीय अर्थशास्त्र के अध्येता प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्रियों को मान्यता देना तो दूर रहा किन्तु उनके प्रति कृतज्ञता यापन करना भी अच्छा नहीं समझते।

राष्ट्र की आय का मुख्य साधन

राजा का राज्य से आय का मुख्य साधन कर ही है। अच्छे व्यवहार, न्याययुक्त करने वाले और विश्वासी व्यक्तियों के द्वारा बडा सा घड़ा भर जाता है, ठीक उसी प्रकार शासक भी थोड़ा थोड़ा कर एकत्र कर अपना कोष संग्रह कर सकता है। कर को एकत्र कर राज्य की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिये प्राचीन भारतीय अर्थ व्यवस्थापक मनु ने इस प्रकार अपने विचार व्यक्त किये हैं:- ”विश्वासी व्यक्तियों के द्वारा ही वार्षिक कर एकत्र कराके, जो कर लेने में प्रजा के साथ न्याय का व्यवहार करें और शासक स्वयं प्रजाजन से पिता के समान व्यवहार करे।”

प्राय: देखा जाता है कि शासक के शासनाधिकारी अपनी स्वार्थी और लोभी मनोवृत्तियों से प्रेरित होकर प्रजाजन को कष्ट देते हैं। अत: प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारक मनु ने राजा को अच्छे व्यक्तियों का चयन करने का सुझाव दिया है। शासक को भी न्याय को दृष्टि में रखते हुये आय की वृद्धि करनी चाहिये। अच्छा शासक उसी को माना गया है जो प्रजा की आर्थिक स्थिति को देखकर उन पर कर लगाता है। व्यक्ति की आय के अनुसार यदि प्रजाजन पर कर लगेंगे तो वह दे सकता है और उस भार को सहन भी कर सकता है। यदि पीड़ा देकर अर्थ दोहन करेगा तो इस प्रकार नष्ट हो जायेगा:- ”जिस प्रकार शरीरधारी प्राणियों के प्राण शरीर के कृष होने पर समाप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार राष्ट्र के प्रजावर्ग को पीडि़त करने पर राजाओं के प्राण भी नष्ट हो जाते हैं।”

यदि दुष्ट राजा मोहवश अपने प्रजाजन की स्थिति को देखे बिना धन संग्रह करता है अथवा जो उसकी रक्षा किये बिना अर्थ शोषण करता है वह समूल नष्ट हो जाता है। ”मोह के वशीभूत होकर जो राजा अपने राष्ट्र से अर्थ ग्रहण करता है और रक्षण नहीं करता वह शीघ्र ही राज्य से और बन्धु-बान्धवों सहित भ्रष्ट हो जाता है।”

राज्य की आय का मुख्य साधन यद्यपि कर माना गया है किन्तु अच्छे शासक को जनता से अल्प कर ग्रहण करना चाहिये। कर संग्रह में अल्प कर की अवहेलना नहीं करनी चाहिये। थोड़ा कर संग्रह करके ही अधिक कर संग्रह हो जाता है। एक साथ कार्य शीघ्रता से नहीं होते। धैर्य धारण करके, उत्साह और उद्योग से अल्प कर ग्रहण करके ही राजा अपने राज्य का विशाल कोष बना देता है। अल्प कर प्रजा को पीड़ा नहीं देता किन्तु अधिक शोषण के द्वारा प्रजा दुखी होकर विद्रोह कर बैठती है। इस प्रकार का शोषक अधिकारी भी कभी अपने राष्ट्र की आर्थिक स्थिति नहीं सुधार सकता है। अल्प अर्थ संग्रह ही विशाल कोष के रूप में परिवर्तित हो जाता है। अच्छे अर्थ व्यवस्थापक प्रजा का शोषण करके कर एकत्र नहीं करते।

जैसे:- ”जिस प्रकार जोंक थोड़ा-थोड़ा खून, बछड़ा दूध, भौंरा शहद एकत्र करता है या पीता है, उसी प्रकार शासक को भी राष्ट्र से वार्षिक कर एकत्र करना चाहिये।”

प्राचीन भारतीय अर्थ व्यवस्थापक मनु ने तो अच्छे शासक को युग के अनुरूप कर लेने की मात्रा तक निर्धारित कर दी थी जिससे न राष्ट्र की हानि हो और प्रजाजनों को भी कर की अधिक मात्रा देने में कष्ट न हो। अत: मनु ने कर की कुछ चीजों पशु, सुवर्ण एवं धान्य पर उसकी उत्पादित किस्मों के अनुसार इस प्रकार कर निर्धारण किया है:- ”पशु और हिरण्य (सोने) पर कर 50वां भाग और धान्य पर उसके अच्छे, बुरे गुणों के अनुसार छठा, आठवां अथवा बारहवां भाग लेना चाहिये।”

छोटी बड़ी उपयोग में आने वाली सभी चीजों की गिनती गिनाकर उन पर तक कर लेने की मात्रा को मनु ने निर्धारित किया है:-

”वृक्ष, मांस, मधु, घी, गन्धवाली वस्तुएं, औषधि, रस (नमक आदि) पुष्प, मूल, फल, पत्र, शाक, तृण, चमड़ा, बांस, मिट्टी से बने बर्तन और पत्थर से निर्मित सभी वस्तुओं का षड्भाग (छठा भाग) करों के रूप में लेना चाहिये।”

व्यापारी वर्ग राष्ट्र का प्राण माना जाता है। अधिक आय होने पर एक निर्धारित सीमा का अतिक्रमण करने पर राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति को आय कर आदि देने पड़ते हैं। उन करों से ही राष्ट्र की आय की वृद्धि होती है। अत: मनु ने व्यापारी वर्ग की सुख सुविधाओं का ध्यान रखते हुए उन पर कर लगाने की भी एक पद्धति निर्धारित की है।

अच्छे शासक को तीन व्यक्तियों का ध्यान रखते हुए ही व्यापारियों पर कर निर्धारण करना चाहिये। 1- प्रजा की क्रय शक्ति को देखते हुये 2- शासन के कोष का विचार करते हुए और 3- व्यापारी वर्ग के लाभांश का ध्यान रखते हुए ही कर लगाने चाहिये। अधिक कर लगाने से व्यापारी प्रजावर्ग को ही मंहगी सामग्री देकर लाभ प्राप्त करेगा, यदि कर न लिया जायेगा तो राष्ट्र के कोष में अर्थ कहां से आयेगा? और यदि व्यापारी को भी लाभ न होगा तो वह व्यापार का कार्य क्यों करेगा? उसे छोड़ देगा। अत: अर्थ का तीनों प्रकार से ध्यान रखते हुए कर लगाना चाहिये।

जैसे:- ”राजा को ऐसा कार्य करना चाहिये जिससे राजा राज्य की रक्षा के लिए और व्यापारी व्यापार के लाभ के फल को प्राप्त कर सके। इस प्रकार देखकर ही राजा को राष्ट्र पर कर लगाने चाहिये।”

व्यापारियों के आय-व्यय, भोजन पर होने वाले व्यय को, मार्ग रक्षा का व्यय औ सम्यक प्रकार के हानि लाभ को ध्यान में रखकर ही राजा व्यापारियों पर कर लगावे।
इन लोगों से कर नहीं लिया जाता था
राज्य की आय वृद्धि के लिए कर लेना नितान्त आवश्यक है किन्तु निम्नलिखित व्यक्तियों को कर से मुक्त रखा गया था क्योंकि इनका उद्देश्य केवल जीवन की रक्षा करने के लिए ही धन एकत्रित करना था। यदि इनका मांगना अर्थ संग्रह करने के उद्ेदश्य से होता तो इन पर कर लगाना भी आवश्यक हो जाता। अत: इन लोगों को कर मुक्त किया गया था।

”1-अन्धा

2-मूर्ख

3-लंगड़ा

4-सत्तर वर्ष का वृद्ध और

5- अन्न से क्षोत्रिय लोगों का उपचार करने वाले व्यक्तियों से कोई भी कर न ले।”

प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारकों ने कर -व्यवस्था में अत्यधिक सोच विचार कर कार्य किया है। शक्तिहीन, अर्थहीन एवं जीवनयापन मात्र अर्थ रखने वाले लोगों से कर नहीं लिया जाता था। वे लोग राज्य कर से मुक्त रखे गये थे। कर ग्रहण करना कोष की वृद्धि व्यक्ति की अभिवृद्धि समाज की उन्नति और राष्ट्र के आर्थिक विकास के लिए होता था।

मनु के विचार से स्वत्व का अधिकार

स्वत्व का अधिकार व्यक्ति को उसके मूल अधिकारों के द्वारा प्राप्त होता है। वस्तुत: जगत में स्वत्व का अधिकार किस पद्धति पर स्वीकार किया जाये? समाज में किसी के पास अत्यधिक सम्पत्ति है और कोई एक टुकड़ा जमीन के लिए दुखी है, क्यों? ऐसी विषमता समाज में क्यों है? इसमें या तो सामजिक नियमों को दोष है या वितरण व्यवस्था का स्वार्थवादी दोष है। इस विषमता में समाज के व्यवस्थापकों एवं सत्ताधारियों का ही सबसे बड़ा हाथ होता है।

यदि कोई व्यक्ति अपनी वंश परम्परा से चली आ रही सम्पत्ति का उपभोग या उपयोग नहीं कर सकता है और वह व्यर्थ पड़ी है तो ऐसी स्थिति में उसका समय के अनुकूल वितरण होना चाहिये। कभी कभी ऐसे लोग अपनी सम्पत्ति का कुछ भाग अर्थ वृद्धि या वैसे ही किसी को दे देते हैं। और दस वर्ष तक निरन्तर उसकी सम्पत्ति का जो व्यक्ति उपभोग कर रहा है, अब उस सम्पत्ति पर नये उपभोक्ता का ही स्वामित्व हो जाता है और पूर्व स्वामी का स्वत्व समाप्त हो जायेगा।

इस प्रकार की घटनाओ पर प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारक मनु ने अपनी व्यवस्था इस प्रकार दी है:-

”यदि कोई स्वामी अपनी सम्पत्ति को किसी अन्य के द्वारा (भुज्यमान) भोगते हुए देख कर भी दस वर्ष तक कुछ नहीं कहता अर्थात मौन रहता है। ऐसी स्थिति में दस वर्ष उपभोग करने वाला ही उसका स्वामी हो जाता है और पूर्व स्वामी उसको अब प्राप्त नहीं कर सकता है।

✍🏻साभार :- भारतीय धरोहर

चीन के सभी व्यापारिक क्षेत्र सुरक्षित कुछ तो गड़बड़ है

चीन ने धोखा देकर आर्थिक विश्व विजय हासिल कर ली है।

उसने सबसे पहले कोरोना वायरस की वैक्सीन बनाई और तब तक अपने फ्रिजों में रखी जब तक पूरे विश्व की आर्थिक अर्थव्यवस्था को पाताल में नहीँ उतार दिया चीन पूरी दुनिया के इन्वेस्टर्स का हब बन गया था।

चीन ने अपने वुहान शहर में इस वायरस को छोडा और जबरदस्त मौतों के कारण भागते इन्वेस्टर्स के शेयरों को कौडी के भाव खरीद लिये और विदेशी निवेशक और उद्यमी अपनी पूंजी छोड़ कर भाग गये चीन ने अपने द्वारा पहले से बनाई और छुपा कर रखी गई वैक्सीन को बाहर निकाल लिया और एक ही दिन में चीन हो रही मौतों को रोक दिया। इस युद्ध में चीन ने अपने कुछ लोग खोये पर पूरी दुनिया की दौलत लूट ली।आज वहाँ एक भी मौत नहीँ हुइ और न ही एक भी मरीज की संख्या बढी ।आज ये वायरस पूरी दुनिया में काल की तरह चक्कर लगा रहा है।
कमाल ये भी देखिये उन सभी देशों और शहरों की कमर टूट गई है जहाँ पर चीनी
नागरिक खर्च करते थे। आज पूरा विश्व
हर रोज अपनी अर्थव्यवस्था को ध्वस्त होते देख रहा है। पर 17 मार्च सै चीन की अर्थव्यवस्था दिनों दिन मजबूत हो रही है।
ये एक आर्थिक युद्ध है जिसमें चीन जीत चुका है और विश्व कुदरत से युद्ध करते करते रोज अपने जान माल को गंवा रहा है।
ये भारत के लोगों का इम्यून है कि वह हर संकट में कुशल यौद्धा की तरह लडता है और जीतता है।हमारे देश के अधिकांश नागरिक इकनोमी के आकंडो में नहीँ फसते, पत्थर में से
पानी निकालने की कुव्वत रखते हैं। हम भारतीय बडे से बडे
रोग को रोटी के टुकड़े में लपेट कर खाने और पचाने में
माहिर हैं। हम कभी कुदरत के विरुद्ध युद्ध नहीँ करते बल्कि उसकी पूजा करते हैं। हम भारतीय मन्दिरों ,गुरुद्वारों से आवाज दे दे कर बुलाते हैं ईश्वर को
रिझाते हैं अतः वो ईश्वर हमारा अनिष्ट कर ही नहीँ सकता।
पर हर भारतीय को
याद रखना चाहिए कि चीन और चीनी इस कुदरत के खल नायक है इनसे हर प्रकार की दूरी बनाए
रखें।
वुहान से शंघाई = 839 km
वुहान से बीजिंग = 1152 km
वुहान से मिलान = 15000 km
वुहान से न्यूयॉर्क = 15000 km

पास के बीजिंग/ शंघाई में कोरोना का कोई प्रभाव नहीं
लेकिन इटली, ईरान, यूरोप देशों में लोगों की मृत्यु और पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था बर्बाद.

चीन के सभी व्यापारिक क्षेत्र सुरक्षित

कुछ तो गड़बड़ है,
अमेरिका ऐसे ही नहीं चीन को दोष दे रहा.

चीन से 10 कड़े सवाल : (सवाल नं 6,7,8,9 अवश्य पढ़ें)

1) जहां पूरी दुनिया इससे प्रभावित हो रही है, वहीं चीन में वुहान के अलावा यह क्यों कहीं नहीं फैला? चीन की राजधानी आखिर इससे अछूती कैसे रह गयी?

2) प्रारंभिक अवस्था में चीन ने पूरी दुनिया से इस वायरस के बारे में क्यों छुपाया?

3) कोरोना के प्रारंभिक सैंपल को नष्ट क्यों किया?

4) इसे सामने लाने वाले डॉक्टर और पत्रकार को खामोश क्यों किया? पत्रकार को तो गायब ही कर दिया गया है?

5) दुनिया के अन्य देशों ने जब सूचना साझा करने को कहा तो उसने सूचना साझा क्यों नहीं किया? मना क्यों किया?

6) कोरोना मानव से मानव में फैलता है, इसे छुपाने के लिए WHO के कम्युनिस्ट निदेशक का उपयोग क्यों किया गया? WHO के निदेशक जनवरी में “बीझिंग (चीन)” में क्या कर रहे थे ….. ?????? (प्लान फिक्सिंग कर रहे थे क्या?)

7) “किसी भी अंतरराष्ट्रीय उड़ान के लिए कोई गाइडलाइन जारी करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह मानव से मानव में नहीं फैलता है” ….ऐसा ट्वीट 11 जनवरी तक WHO करता रहा । क्यों ??? आज साबित हो गया कि कोरोना मानव से मानव में फैलता है… तो फिर WHO ने झूठ क्यों बोला ????

8) वुहान से एकसाथ 50,00,000 लोगों को बिना मेडिकल जांच किए “दुनिया के अलग-अलग हिस्से में” क्यों भेजा गया ..???

9) इटली में 6 फरवरी तक मामूली केस था। एकाएक चीनी ‘हम चीनी हैं वायरस नहीं, हमें गले लगाइए।’ प्लेकार्ड के साथ दुनिया के पर्यटन स्थल ‘सिटी ऑफ लव’ के नाम से मशहूर इटली के लोगों को गले लगाने क्यों पहुंचे ???

10) पूरी दुनिया आज चीन और WHO को संदेह की नजर से देख रही है और ताज्जुब देखिए कि एक ही दिन चीन और WHO, दोनों भारत की तारीफ में उतर आए! क्या यह महज संयोग है?

11) और इसके अगले ही दिन भारत में चीन के राजदूत ट्वीट कर उम्मीद करते हैं कि भारत इंटरनेशनल कम्युनिटी में उसकी पैरवी करे। आखिर क्यों? नेहरू की एक गलती का खामियाजा हम भुगत चुके हैं। यह मोदी सरकार है, और उम्मीद है वह कम से कम वह गलती तो नहीं ही दोहराएगी?

12) सार्क से लेकर G-20 तक की बैठक पीएम मोदी के कहने पर हो रही है‌। संकट के समय भारत वर्ल्ड लीडर के रूप में उभरा है। इटली, जर्मनी, स्पेन, फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका तक जब कैरोना से निबटने में असफल हो रहे हैं तो पीएम मोदी की पहल पर भारत इससे कहीं बेहतर तरीके से डील कर रहा है।

चीन इसी का फायदा उठाकर यह चाहता है कि भारत इंटरनेशनल कम्युनिटी में उसके अछूतपन को दूर करे। अब यह नहीं होगा। चीन संदेह के घेरे में है और रहेगा!

(जरूर पढ़े)
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दुनिया पर हावी होने का तरीका ??

चीनी रणनीति:-

1. सबसे पहले एक वायरस और उसकी दवा बनाई।

2. फिर वायरस फैलाया।

3. अपनी दक्षता का प्रदर्शन करते हुए रातों- रात अस्पतालों का निर्माण करवा लिया (आखिरकार वे पहले से ही तैयार थे) परियोजनाओं के साथ साथ उपकरण का आदेश देना, श्रम, पानी और सीवेज नेटवर्क को किराए पर लेना, पूर्वनिर्मित निर्माण सामग्री और एक प्रभावशाली मात्रा में स्टॉक.. यह सब उस रणनीति का हिस्सा थे।

4. परिणामस्वरूप दुनिया में वायरस के साथ साथ अराजकता फैलने लगी, खास कर के यूरोप में।

5. दर्जनों देशों की अर्थव्यवस्था त्वरित रूप से प्रभावित हुई।

6. अन्य देशों के कारखानों में उत्पादन लाइनें बंद हो गई।

7. फलस्वरूप शेयर बाजार में ज़बरदस्त गिरावट।

8. चीन ने अपने देश में महामारी को जल्दी से नियंत्रित कर लिया। रातों रात वुहान से कोरोना के नए मरीज मिलना बन्द ही हो गए। यह कैसे सम्भव है जबकि इटली जैसा देश इस स्थिति को नहीं सम्भाल पर रहा है। आखिरकार, चीन पहले से ही तैयार था।

9. परिणाम स्वरूप उन वस्तुओं की कीमत कम हो गई, जिनसे वह बड़े पैमाने पर तेल आदि खरीदता हैं।

10. फिर चीन तुरन्त ही उत्पादन करने के लिए वापस जुट गया, जबकि दुनिया एक ठहराव पर है। जहां एक ओर दुनिया में हाहाकार मचा हुआ है, वहीं चीन ने अपनी फैक्ट्रियों में काम शुरू करवा दिया है? चीन उन चीजों को खरीदने लगा जिनकी कीमत में भारी गिरावट हो गई थी और उनको बेचने लगा जिनकी कीमत में ज़बरदस्त इजाफा हुआ है।

अब यदि विश्वास ना हो रहा हो तो…
1999 में, चीनी उपनिवेशों किआओ लियांग और वांग जियांगसुई के द्वारा लिखी गई पुस्तक, “अप्रतिबंधित युद्ध: अमेरिका को नष्ट करने के लिए चीन का मास्टर प्लान” को पढ़ लें!!* ये सब तथ्य वहाँ मौजूद है।

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ज़रा इस बारे में सोचिए…

कैसे रूस और उत्तर कोरिया कोविड 19 याने कोरोना से पूरी तरह से मुक्त हैं? क्योंकि वे चीन के कट्टर सहयोगी हैं। इन 2 देशों से एक भी मामले की सूचना नहीं मिली। दूसरी ओर दक्षिण कोरिया / यूनाइटेड किंगडम / इटली / स्पेन और एशिया गंभीर रूप से प्रभावित हैं। क्योंकि ये सब चीन के प्रतिस्पर्धी है..

कैसे हुआ वुहान अचानक घातक वायरस से मुक्त?

चीन यह कहेगा कि उनके प्रारंभिक उपाय बहुत कठोर थे और वुहान को अन्य क्षेत्रों में फैलाने के लिए बंद याने लोकडाउन कर दिया गया था। परन्तु ये जवाब बड़ा ही मजाकिया है..ऐसा होता तो बाकी के देशों में भी यह इतना नहीं फैलता और एक शहर तक ही सीमित रहता। यह 100% सत्य है कि वे वायरस के एंटी डोड का उपयोग कर रहे हैं।

बीजिंग में कोई क्यों नहीं मारा गया? केवल वुहान ही क्यों? दिलचस्प विचार है ये …खैर, वुहान अब व्यापार के लिए खुल गया है। अमेरिका और उपर्युक्त सभी देश आर्थिक रूप से तबाह हैं। जल्द ही अमेरिकी अर्थव्यवस्था चीन की योजना के अनुसार ढह जाएगी। चीन जानता है कि वह अमेरिका को सैन्य रूप से नहीं हरा सकता क्योंकि वर्तमान में इस हिसाब से अमरीका विश्व में सबसे बड़ा ताकतवर देश है।

तो यह है चीन का विश्व विजय फार्मूला…वायरस का उपयोग करें दूसरे देशों की अर्थव्यवस्था और रक्षा क्षमताओं को पंगु बनाने के लिए। निश्चित ही नैन्सी पेलोसी को इसमें एक सहायक बनाया गया था कारण था ट्रम्प को टक्कर देने के लिए। राष्ट्रपति ट्रम्प हमेशा यह बताते रहे है कि कैसे ग्रेट अमेरिकन अर्थव्यवस्था सभी मोर्चों में सुधार कर रही है। AMERICA GREAT AGAIN बनाने की उनकी दृष्टि को नष्ट करने का एकमात्र तरीका आर्थिक तबाही था। नैन्सी पेलोसी ट्रम्प के खिलाफ महाभियोग लाने में असमर्थ थी। …. इसलिए चीन के साथ मिलकर एक वायरस जारी करके ट्रम्प को नष्ट करने का यह तरीका उन्होंने अपनाया। वुहान तो महामारी का सिर्फ एक प्रदर्शन था…अब ये वायरस महामारी को चरम पर ले जा चुका है!!!

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग उन प्रभावी क्षेत्रों का दौरा करने के लिए बस एक साधारण RM1 फेसमास्क पहन कर पहुंचे थे राष्ट्रपति के रूप में उन्हें सिर से पैर तक ढंका जाना चाहिए ….. लेकिन ऐसा नहीं था। वायरस से किसी भी तरह के नुकसान का विरोध करने के लिए उन्हें पहले ही इंजेक्शन लगाया गया था। इसका मतलब है कि वायरस के निकलने से पहले ही उसका इलाज चल रहा था।

अब यदि आप तर्क दें कि – बिल गेट्स ने पहले ही 2015 में एक वायरस फैलने की भविष्यवाणी कर दी थी … इसलिए चीनी एजेंडा सच नहीं हो सकता। तो उत्तर है- हाँ, बिल गेट्स ने भविष्यवाणी की थी लेकिन वह भविष्यवाणी एक वास्तविक वायरस के प्रकोप पर आधारित थी ना की मानव जनित। अब चीन यह भी बता रहा है कि वायरस का पहले से ही अनुमान था ताकि इसका एजेंडा उस भविष्यवाणी से मेल खा सके और सब कुछ प्राकृतिक या स्वतः प्रकिया लगे। अभी भी यदि यह प्रमाणिक तथ्य आपको बनावटी लगता है तो आगे स्वयं देखियेगा… चीन का अगला कदम गिरती हुई आर्थिक अर्थव्यवस्था के कगार का सामना करने वाले देशों से अब स्टॉक खरीद कर विश्व अर्थव्यवस्था को अपने नियंत्रण में करना होगा… बाद में चीन यह घोषणा करेगा कि उनके मेडिकल शोधकर्ताओं ने वायरस को नष्ट करने का इलाज ढूंढ लिया है।
अब चीन के पास अपनी सेनाओं के शस्त्रागारों में अन्य देशों के स्टॉक हैं और ये देश जल्द ही मजबूरी में अपने मालिक के गुलाम होंगे !!

और हां, एक बात और…
जिस चीनी डॉक्टर ने इस वायरस का खुलासा किया था, वह भी चीनी अधिकारियों द्वारा हमेशा के लिए खामोश कर दिया गया….
विचारणीय
🤔🤔🤔

कैसे करे महामृत्युंजय मन्त्र साधना और प्रयोग ?

कैसे करे महामृत्युंजय मन्त्र साधना और प्रयोग ?

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“महामृत्युंजय मंत्र” भगवान शिव का सबसे बड़ा मंत्र माना जाता है। हिन्दू धर्म में इस मंत्र को प्राण रक्षक और महामोक्ष मंत्र कहा जाता है। मान्यता है कि म प्रिय हामृत्युंजय मंत्र से शिवजी को प्रसन्न करने वाले जातक से मृत्यु भी डरती है। इस मंत्र को सिद्ध करने वाला जातक निश्चित ही मोक्ष को प्राप्त करता है।

यह मंत्र ऋषि मार्कंडेय द्वारा सबसे पहले पाया गया था।भगवान शिव को कालों का काल महाकाल कहा जाता है। मृत्यु अगर निकट आ जाए और आप महाकाल के महामृत्युंजय मंत्र का जप करने लगे तो यमराज की भी हिम्मत नहीं होती है कि वह भगवान शिव के भक्त को अपने साथ ले जाए।

इस मंत्र की शक्ति से जुड़ी कई कथाएं शास्त्रों और पुराणों में मिलती है जिनमें बताया गया है कि इस मंत्र के जप से गंभीर रुप से बीमार व्यक्ति स्वस्थ हो गए और मृत्यु के मुंह में पहुंच चुके व्यक्ति भी दीर्घायु का आशीर्वाद पा गए।

यही कारण है कि ज्योतिषी और पंडित बीमार व्यक्तियों को और ग्रह दोषों से पीड़ित व्यक्तियों को महामृत्युंजय मंत्र जप करवाने की सलाह देते हैं। शिव को अति प्रसन्न करने वाला मंत्र है महामृत्युंजय मंत्र। लोगों कि धारणा है कि इसके जाप से व्यक्ति की मृत्यु नहीं होती परंतु यह पूरी तरह सही अर्थ नहीं है।

महामृत्युंजय का अर्थ है महामृत्यु पर विजय अर्थात् व्यक्ति की बार-बार मृत्यु ना हो। वह मोक्ष को प्राप्त हो जाए। उसका शरीर स्वस्थ हो, धन एवं मान की वृद्धि तथा वह जन्म मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाए।

महामृत्युञ्जय मंत्र यजुर्वेद के रूद्र अध्याय स्थित एक मंत्र है। इसमें शिव की स्तुति की गयी है। शिव को ‘मृत्यु को जीतने वाला’ माना जाता है। कहा जाता है कि यह मंत्र भगवान शिव को प्रसन्न कर उनकी असीम कृपा प्राप्त करने का माध्यम है।

इस मंत्र का सवा लाख बार निरंतर जप करने से आने वाली अथवा मौजूदा बीमारियां तथा अनिष्टकारी ग्रहों का दुष्प्रभाव तो समाप्त होता ही है, इस मंत्र के माध्यम से अटल मृत्यु तक को टाला जा सकता है।

हमारे वैदिक शास्त्रों और पुराणों में असाध्य रोगों से मुक्ति और अकाल मृत्यु से बचने के लिए महामृत्युंजय जप करने का विशेष उल्लेख मिलता है। महामृत्युंजय भगवान शिव को खुश करने का मंत्र है।

इसके प्रभाव से इंसान मौत के मुंह में जाते-जाते बच जाता है, मरणासन्न रोगी भी महाकाल शिव की अद्भुत कृपा से जीवन पा लेता है। बीमारी, दुर्घटना, अनिष्ट ग्रहों के प्रभावों से दूर करने, मौत को टालने और आयु बढ़ाने के लिए सवा लाख महामृत्युंजय मंत्र जप करने का विधान है।

शिव के साधक को न तो मृत्यु का भय रहता है, न रोग का, न शोक का। शिव तत्व उनके मन को भक्ति और शक्ति का सामर्थ देता है। शिव तत्व का ध्यान महामृत्युंजय के रूप में किया जाता है।

इस मंत्र के जप से शिव की कृपा प्राप्त होती है। सतयुग में मूर्ति पूजा कर सकते थे, पर अब कलयोग में सिर्फ मूर्ति पूजन काफी नहीं है। भविष्य पुराण यह बताया गया है कि महामृत्युंजय मंत्र का रोज़ जाप करने से उस व्यक्ति को अच्छा स्वास्थ्य, धन, समृद्धि और लम्बी उम्र मिलती है।

अगर आपकी कुंडली में किसी भी तरह से मास, गोचर, अंतर्दशा या अन्य कोई परेशानी है तो यह मंत्र बहुत मददगार साबित होता है। अगर आप किसी भी रोग या बीमारी से ग्रसित हैं तो रोज़ इसका जाप करना शुरू कर दें, लाभ मिलेगा।

यदि आपकी कुंडली में किसी भी तरह से मृत्यु दोष या मारकेश है तो इस मंत्र का जाप करें। इस मंत्र का जप करने से किसी भी तरह की महामारी से बचा जा सकता है साथ ही पारिवारिक कलह, संपत्ति विवाद से भी बचता है।

अगर आप किसी तरह की धन संबंधी परेशानी से जूझ रहें है या आपके व्यापार में घाटा हो रहा है तो इस मंत्र का जप करें। इस मंत्र में आरोग्यकर शक्तियां है जिसके जप से ऐसी दुवानियां उत्पन होती हैं जो आपको मृत्यु के भय से मुक्त कर देता है, इसीलिए इसे मोक्ष मंत्र भी कहा जाता है।

शास्त्रों के अनुसार इस मंत्र का जप करने के लिए सुबह 2 से 4 बजे का समय सबसे उत्तम माना गया है, लेकिन अगर आप इस वक़्त जप नहीं कर पाते हैं तो सुबह उठ कर स्नान कर साफ़ कपडे पहने फिर कम से कम पांच बार रुद्राक्ष की माला से इस मंत्र का जप करें।

स्नान करते समय शरीर पर लोटे से पानी डालते वक्त इस मंत्र का लगातार जप करते रहने से स्वास्थ्य-लाभ होता है। दूध में निहारते हुए यदि इस मंत्र का कम से कम 11 बार जप किया जाए और फिर वह दूध पी लें तो यौवन की सुरक्षा भी होती है। इस चमत्कारी मन्त्र का नित्य पाठ करने वाले व्यक्ति पर भगवान शिव की कृपा निरन्तंर बरसती रहती है ।

महामृत्युंजय मंत्र का जप करना परम फलदायी है, लेकिन इस मंत्र के जप में कुछ सावधानियां बरतना चाहिए जिससे कि इसका संपूर्ण लाभ आपको मिले और आपको कोई हानि न हो। अगर आप नही कर पा रहे इस मंत्र का जाप जो किसी पंडित से जाप कराए यह आपके लिए और अधिक लाभकारी होगा।

तीनों भुवनों की अपार सुंदरी गौरां को अर्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों व पिशाचों से घिरे रहते हैं। उनका रूप बड़ा अजीब है। शरीर पर मसानों की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटाओं में जगत-तारिणी पावन गंगा तथा माथे में प्रलयंकर ज्वाला है। बैल को वाहन के रूप में स्वीकार करने वाले शिव अमंगल रूप होने पर भी भक्तों का मंगल करते हैं और श्री-संपत्ति प्रदान करते हैं।

महारूद्र सदाशिव को प्रसन्न करने व अपनी सर्वकामना सिद्धि के लिए यहां पर पार्थिव पूजा का विधान है, जिसमें मिटटी के शिर्वाचन पुत्र प्राप्ति के लिए, श्याली चावल के शिर्वाचन व अखण्ड दीपदान की तपस्या होती है।

शत्रुनाश व व्याधिनाश हेतु नमक के शिर्वाचन, रोग नाश हेतु गाय के गोबर के शिर्वाचन, दस विधि लक्ष्मी प्राप्ति हेतु मक्खन के शिर्वाचन अन्य कई प्रकार के शिवलिंग बनाकर उनमें प्राण-प्रतिष्ठा कर विधि-विधान द्वारा विशेष पुराणोक्त व वेदोक्त विधि से पूज्य होती रहती है ||

भारतीय संस्कृति में शिवजी को भुक्ति और मुक्ति का प्रदाता माना गया है। शिव पुराण के अनुसार वह अनंत और चिदानंद स्वरूप हैं। वह निर्गुण, निरुपाधि, निरंजन और अविनाशी हैं। वही परब्रह्म परमात्मा शिव कहलाते हैं। शिव का अर्थ है कल्याणकर्ता।

उन्हें महादेव (देवों के देव) और महाकाल अर्थात काल के भी काल से संबोधित किया जाता है। केवल जल, पुष्प और बेलपत्र चढ़ाने से ही प्रसन्न हो जाने के कारण उन्हें आशुतोष भी कहा जाता है।

उनके अन्य स्वरूप

  • अर्धनारीश्वर,
  • महेश्वर,
  • सदाशिव,
  • अंबिकेश्वर,
  • पंचानन,
  • नीलकंठ,
  • पशुपतिनाथ,
  • दक्षिणमूर्ति आदि हैं।

पुराणों में

  • ब्रह्मा,
  • विष्णु,
  • श्रीराम,
  • श्रीकृष्ण,
  • देवगुरु
  • बृहस्पति तथा

अन्य देवी देवताओं द्वारा शिवोपासना का विवरण मिलता है।

जब किसी की अकालमृत्यु किसी घातक रोग या दुर्घटना के कारण संभावित होती हैं तो इससे बचने का एक ही उपाय है – महामृत्युंजय साधना। यमराज के मृत्युपाश से छुड़ाने वाले केवल भगवान मृत्युंजय शिव हैं जो अपने साधक को दीर्घायु देते हैं। इनकी साधना एक ऐसी प्रक्रिया है जो कठिन कार्यों को सरल बनाने की क्षमता के साथ-साथ विशेष शक्ति भी प्रदान करती है।

यह साधना श्रद्धा एवं निष्ठापूर्वक करनी चाहिए। इसके कुछ प्रमुख तथ्य यहां प्रस्तुत हैं, जिनका साधना काल में ध्यान रखना परमावश्यक है। अनुष्ठान शुभ दिन, शुभ पर्व, शुभ काल अथवा शुभ मुहूर्त में संपन्न करना चाहिए। मंत्रानुष्ठान प्रारंभ करते समय सामने भगवान शंकर का शक्ति सहित चित्र एवं महामृत्युंजय यंत्र स्थापित कर लेना चाहिए।

ज्योतिष अनुसार किसी जन्मकुण्डली में सूर्यादि ग्रहों के द्वारा किसी प्रकार की अनिष्ट की आशंका हो या मारकेश आदि लगने पर, किसी भी प्रकार की भयंकर बीमारी से आक्रान्त होने पर, अपने बन्धु-बन्धुओं तथा इष्ट-मित्रों पर किसी भी प्रकार का संकट आने वाला हो।

देश-विदेश जाने या किसी प्राकर से वियोग होने पर, स्वदेश, राज्य व धन सम्पत्ति विनष्ट होने की स्थिति में, अकाल मृत्यु की शान्ति एंव अपने उपर किसी तरह की मिथ्या दोषारोपण लगने पर, उद्विग्न चित्त एंव धार्मिक कार्यो से मन विचलित होने पर महामृत्युंजय मन्त्र का जप स्त्रोत पाठ, भगवान शंकर की आराधना करें। यदि स्वयं न कर सके तो किसी पंडित द्वारा कराना चाहिए। इससे सद्बुद्धि, मनःशान्ति, रोग मुक्ति एंव सवर्था सुख सौभाग्य की प्राप्ति होती है।

अनिष्ट ग्रहों का निवारण मारक एवं बाधक ग्रहों से संबंधित दोषों का निवारण महामृत्युंजय मंत्र की आराधना से संभव है। मान्यता है कि बारह ज्योतिर्लिगों के दर्शन मात्र से समस्त बारह राशियों संबंधित शुभ फलों की प्राप्ति होती है। काल संबंधी गणनाएं ज्योतिष का आधार हैं तथा शिव स्वयं महाकाल हैं, अत: विपरीत कालखंड की गति महामृत्युंजय साधना द्वारा नियंत्रित की जा सकती है।

जन्म पत्रिका में काल सर्पदोष, चंद्र-राहु युति से जनित ग्रहण दोष, मार्केश एवं बाधकेश ग्रहों की दशाओं में, शनि के अनिष्टकारी गोचर की अवस्था में महामृत्युंजय का प्रयोग शीघ्र फलदायी है। इसके अलावा विषघटी, विषकन्या, गंडमूल एवं नाड़ी दोष आदि अनेकानेक दोषों को निमरूल करने की क्षमता इस मंत्र में है।

जानिए आपकी राशि अनुसार महामृत्युंजय मंत्र जाप के लाभ––

  1. मेष—महामृत्युंजय जाप से भूमि-भवन संबंधी परेशानियों एवं कार्यो में लाभ। व्यापार में विस्तार।
  2. वृषभ- उत्साह एवं ऊर्जा की प्राप्ति होगी। भाई-बहनों से पूर्ण सुख एवं सहयोग मिलता रहेगा।
  3. मिथुन- आर्थिक लाभ। स्वास्थ्य संबंघी बाधाओं एवं पीड़ाओं की निवृत्ति हेतु अचूक। पारिवारिक सुख।
  4. कर्क- इस मंत्र का जाप करते रहें। जीवन का सर्वागीण विकास होगा।
  5. सिंह- अनावश्यक प्रवृत्तियों पर अंकुश। आराम दायक नींद एवं पारिवारिक सुख की प्राप्ति।
  6. कन्या- धन-धान्य संबंधी लाभ। मनोकामनाओं की पूर्ति। सुख एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति।
  7. तुला- कार्य क्षेत्र में सफलताएं मिलेगी। व्यापारिक अवरोधों समाप्त होंगे। पदोन्नति हेतु विशेष लाभप्रद।
  8. वृश्चिक- भाग्योदय कारक है। आध्यात्मिक उन्नति की संभावनाएं बनेंगी।
  9. धनु- पैतृक संपत्ति की प्राप्ति। दुर्घटनाओं एवं आकस्मिक आपदाओं से रक्षा।
  10. मकर- सुयोग्य जीवनसाथी की प्राप्ति। दांपत्य जीवन में मधुरता एवं व्यापारिक उन्नति के अवसर।
  11. कुंभ- शत्रु एवं ऋण संबंधी सारे दोष दूर होंगे। प्रतियोगिताओं एवं वाद-विवाद में सफलताएं मिलेगी।
  12. मीन- मानसिक स्थिरता। संतानोत्पत्ति। शिक्षा संबंधी बाधाओं का निवारण।

महामृत्युंजय के अनुष्ठान एंव लधु रूद्र, महारूद्र तथा सामान्य रूद्राअभिषेक प्रायः होते ही रहते है, लेकिन विशेष कामनाओं के लिए शिर्वाचन का अपना अलग विशेष महत्व होता है।

महारूद्र सदाशिव को प्रसन्न करने व अपनी सर्वकामना सिद्धि के लिए यहां पर पार्थिव पूजा का विधान है, जिसमें मिटटी के शिर्वाचन पुत्र प्राप्ति के लिए, श्याली चावल के शिर्वाचन व अखण्ड दीपदान की तपस्या होती है।

शत्रुनाश व व्याधिनाश हेतु नमक के शिर्वाचन, रोग नाश हेतु गाय के गोबर के शिर्वाचन, दस विधि लक्ष्मी प्राप्ति हेतु मक्खन के शिर्वाचन अन्य कई प्रकार के शिवलिंग बनाकर उनमें प्राण-प्रतिष्ठा कर विधि-विधान द्वारा विशेष पुराणोक्त व वेदोक्त विधि से पूज्य होती रहती है। महामृत्युंजय मंत्र के जप व उपासना के तरीके आवश्यकता के अनुरूप होते हैं। काम्य उपासना के रूप में भी इस मंत्र का जप किया जाता है।

जप के लिए अलग-अलग मंत्रों का प्रयोग होता है।

मंत्र में दिए अक्षरों की संख्या से इनमें विविधता आती है।

यह मंत्र निम्न प्रकार से है-

  • एकाक्षरी(1) मंत्र- ‘हौं’
  • त्र्यक्षरी(3) मंत्र- ‘ॐ जूं सः’
  • चतुराक्षरी(4) मंत्र- ‘ॐ वं जूं सः’
  • नवाक्षरी(9) मंत्र- ‘ॐ जूं सः पालय पालय’
  • दशाक्षरी(10) मंत्र- ‘ॐ जूं सः मां पालय पालय’

(स्वयं के लिए इस मंत्र का जप इसी तरह होगा जबकि किसी अन्य व्यक्ति के लिए यह जप किया जा रहा हो तो ‘मां’ के स्थान पर उस व्यक्ति का नाम लेना होगा)

ऊॅ हौं जूं सः। ऊॅ भूः भुवः स्वः ऊॅ त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उव्र्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।। ऊॅ स्वः भुवः भूः ऊॅ। ऊॅ सः जूं हौं।

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जानिए महामृत्युंजय मंत्र का जाप करते वक्त किस बातों का ध्यान रखना चाहिए—-

प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रम्‌ अर्थात्‌ ज्योतिष प्रत्यक्ष शास्त्र है। फलित ज्योतिष में महादशा एवं अन्तर्दशा का बड़ा महत्व है। वृहत्पाराशर होराशास्त्र में अनेकानेक दशाओं का वर्णन है। आजकल विंशोत्तरी दशा का प्रचलन है। मारकेश ग्रहों की दशा एवं अन्तर्दशा में महामृत्युंजय प्रयोग फलदायी है।

जन्म, मास, गोचर, अष्टक आदि में ग्रहजन्य पीड़ा के योग, मेलापक में नाड़ी के योग, मेलापक में नाड़ी दोष की स्थिति, शनि की साढ़ेसाती, अढय्या शनि, पनौती (पंचम शनि), राहु-केतु, पीड़ा, भाई का वियोग, मृत्युतुल्य विविध कष्ट, असाध्य रोग, त्रिदोषजन्य महारोग, अपमृत्युभय आदि अनिष्टकारी योगों में महामृत्युंजय प्रयोग रामबाण औषधि है।

शनि की महादशा में शनि तथा राहु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, केतु में केतु तथा गुरु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, रवि की महादशा में रवि की अनिष्टकारी अंतर्दशा, चन्द्र की महादशा में बृहस्पति, शनि, केतु, शुक तथा सूर्य की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, मंगल तथा राहु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, राहु की महादशा में गुरु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, शुक्र की महादशा में गुरु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, मंगल तथा राहु की अन्तर्दशा, गुरु की महादशा में गुरु की अनिष्टकारी अंतर्दशा, बुध की महादशा में मंगल-गुरु तथा शनि की अनिष्टकारी अन्तर्दशा आदि इस प्रकार मारकेश ग्रह की दशा अन्तर्दशा में सविधि मृत्युंजय जप, रुद्राभिषेक एवं शिवार्जन से ग्रहजन्य एवं रोगजन्य अनिष्टकारी बाधाएँ शीघ्र नष्ट होकर अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है।

उपर्युक्त अनिष्टकारी योगों के साथ ही अभीष्ट सिद्धि, पुत्र प्राप्ति, राजपद प्राप्ति, चुनाव में विजयी होने, मान-सम्मान, धन लाभ, महामारी आदि विभिन्न उपद्रवों, असाध्य एवं त्रिदोषजन्य महारोगादि विभिन्न प्रयोजनों में सविधि प्रमाण सहित महामृत्युंजय जप से मनोकामना पूर्ण होती है।

विभिन्न प्रयोजनों में अनिष्टता के मान से 1 करोड़ 24 लाख, सवा लाख, दस हजार या एक हजार महामृत्युंजय जप करने का विधान उपलब्ध होता है। मंत्र दिखने में जरूर छोटा दिखाई देता है, किन्तु प्रभाव में अत्यंत चमत्कारी है।

देवता मंत्रों के अधीन होते हैं- मंत्रधीनास्तु देवताः। मंत्रों से देवता प्रसन्न होते हैं। मंत्र से अनिष्टकारी योगों एवं असाध्य रोगों का नाश होता है तथा सिद्धियों की प्राप्ति भी होती है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, तैत्तिरीय संहिता एवं निरुवतादि मंत्र शास्त्रीय ग्रंथों में त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनम्‌ उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। उक्त मंत्र मृत्युंजय मंत्र के नाम से प्रसिद्ध है।

शिवपुराण में सतीखण्ड में इस मंत्र को ‘सर्वोत्तम’ महामंत्र’ की संज्ञान से विभूषित किया गया है- मृत संजीवनी मंत्रों मम सर्वोत्तम स्मृतः। इस मंत्र को शुक्राचार्य द्वारा आराधित ‘मृतसंजीवनी विद्या’ के नाम से भी जाना जाता है। नारायणणोपनिषद् एवं मंत्र सार में- मृत्युर्विनिर्जितो यस्मात तस्मान्यमृत्युंजय स्मतः अर्थात्‌ मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के कारण इन मंत्र योगों को ‘मृत्युंजय’ कहा जाता है। सामान्यतः मंत्र तीन प्रकार के होते हैं- वैदिक, तांत्रिक, एवं शाबरी। इनमें वैदिक मंत्र शीघ्र फल देने वाले त्र्यम्बक मंत्र भी वैदिक मंत्र हैं।

मृत्युंजय जप, प्रकार एवं प्रयोगविधि का मंत्र महोदधि, मंत्र महार्णव, शारदातिक, मृत्युंजय कल्प एवं तांत्र, तंत्रसार, पुराण आदि धर्मशास्त्रीय ग्रंथों में विशिष्टता से उल्लेख है। मृत्युंजय मंत्र तीन प्रकार के हैं- पहला मंत्र और महामृत्युंजय मंत्र। पहला मंत्र तीन व्यह्यति- भूर्भुवः स्वः से सम्पुटित होने के कारण मृत्युंजय, दूसरा ॐ हौं जूं सः (त्रिबीज) और भूर्भुवः स्वः (तीन व्याह्यतियों) से सम्पुटित होने के कारण ‘मृतसंजीवनी’ तथा उपर्युक्त हौं जूं सः (त्रिबीज) तथा भूर्भुवः स्वः (तीन व्याह्यतियों) के प्रत्येक अक्षर के प्रारंभ में ॐ का सम्पुट लगाया जाता है। इसे ही शुक्राचार्य द्वारा आराधित महामृत्युंजय मंत्र कहा जाता है।

इस प्रकार वेदोक्त ‘त्र्यम्बकं यजामहे’ मंत्र में ॐ सहित विविध सम्पुट लगने से उपर्युक्त मंत्रों की रचना हुई है। उपर्युक्त तीन मंत्रों में मृतसंजीवनी मंत्र

ॐ हौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्‌ ॐ स्वः भुवः ॐ सः जूं हौं ॐ।

यह मंत्र सर्वाधिक प्रचलित एवं फल देने वाला माना गया है। कुछ लघु मंत्र भी प्रयोग में आते हैं,

जैसे-

  • त्र्यक्षरी अर्थात तीन अक्षरों वाला ॐ जूं सः
  • पंचाक्षरी ॐ हौं जूं सः ॐ तथा ॐ जूं सः पालय पालय आदि।
  • ॐ हौं जूं सः पालय पालय सः जूं हौं ॐ।
  • हौं जूं सः पालय पालय सः जूं हौं ॐ।

इस मंत्र के 11 लाख अथवा सवा लाख जप का मृत्युंजय कवच यंत्र के साथ जप करने का विधान भी है। यंत्र को भोजपत्र पर अष्टगंध से लिखकर पुरुष के दाहिने तथा स्त्री के बाएँ हाथ पर बाँधने से असाध्य रोगों से मुक्ति होती है। सर्वप्रथम यंत्र की सविधि विभिन्न पूजा उपचारों से पूजा-अर्चना करना चाहिए, पूजा में विशेष रूप से आंकड़े, एवं धतूरे का फूल, केसरयुक्त, चंदन, बिल्वपत्र एवं बिल्वफल, भांग एवं जायफल का नैवेद्य आदि।

मंत्र जप के पश्चात्‌ सविधि हवन, तर्पण एवं मार्जन करना चाहिए। मंत्र प्रयोग विधि सुयोग्य वैदिक विद्वान आचार्य के आचार्यत्व या मार्गदर्शन में सविधि सम्पन्न हो तभी यथेष्ठ की प्राप्ति होती है, अन्यथा अर्थ का अनर्थ होने की आशंका हो सकती है।

मृत्युंजय शिव का स्वरूप भगवान शिव की पांच कलाएं उपनिषदों में वर्णित हैं,

1- आनंद

2- विज्ञान

3- मन

4- प्राण

5- वाक।

शिव की आनंद नामक कला उनका महामृत्यंजय स्वरूप है।

विज्ञानकला दक्षिणामूर्ति शिव,

मन कला कामेश्वर,

प्राणकला पशुपति शिव एवं

वाक कला भूतेशभावन शिव कहलाती है।

उपनिषदों की व्याख्या के आधार पर जीवन में आनंद प्राप्ति के निमित्त शिव के मृत्युंजय स्वरूप की आराधना आदि काल से प्रचलित है।

महामृत्युंजय शिव षड्भुजा धारी हैं, जिनमें से चार भुजाओं में अमृत कलश रखते हैं, अर्थात् वे अमृत से स्नान करते हैं, अमृत का ही पान करते हैं एवं अपने भक्तों को भी अमृत पान कराते हुए अजर-अमर कर देते हैं। इनकी शक्ति भगवती अमृतेश्वरी हैं।

वेदोक्त मंत्र-

महामृत्युंजय का वेदोक्त मंत्र निम्नलिखित है-

त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌ ॥

इस मंत्र में 32 शब्दों का प्रयोग हुआ है और इसी मंत्र में ॐ’ लगा देने से 33 शब्द हो जाते हैं। इसे ‘त्रयस्त्रिशाक्षरी या तैंतीस अक्षरी मंत्र कहते हैं। श्री वशिष्ठजी ने इन 33 शब्दों के 33 देवता अर्थात्‌ शक्तियाँ निश्चित की हैं जो कि निम्नलिखित हैं।

इस मंत्र में 8 वसु, 11 रुद्र, 12 आदित्य 1 प्रजापति तथा 1 वषट को माना है।

मंत्र विचार :—

इस मंत्र में आए प्रत्येक शब्द को स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि शब्द ही मंत्र है और मंत्र ही शक्ति है। इस मंत्र में आया प्रत्येक शब्द अपने आप में एक संपूर्ण अर्थ लिए हुए होता है और देवादि का बोध कराता है।

शब्द बोधक शब्द बोधक

‘त्र’ ध्रुव वसु ‘यम’ अध्वर वसु

‘ब’ सोम वसु ‘कम्‌’ वरुण

‘य’ वायु ‘ज’ अग्नि

‘म’ शक्ति ‘हे’ प्रभास

‘सु’ वीरभद्र ‘ग’ शम्भु

‘न्धिम’ गिरीश ‘पु’ अजैक

‘ष्टि’ अहिर्बुध्न्य ‘व’ पिनाक

‘र्ध’ भवानी पति ‘नम्‌’ कापाली

‘उ’ दिकपति ‘र्वा’ स्थाणु

‘रु’ भर्ग ‘क’ धाता

‘मि’ अर्यमा ‘व’ मित्रादित्य

‘ब’ वरुणादित्य ‘न्ध’ अंशु

‘नात’ भगादित्य ‘मृ’ विवस्वान

‘त्यो’ इंद्रादित्य ‘मु’ पूषादिव्य

‘क्षी’ पर्जन्यादिव्य ‘य’ त्वष्टा

‘मा’ विष्णुऽदिव्य ‘मृ’ प्रजापति

‘तात’ वषट

इसमें जो अनेक बोधक बताए गए हैं। ये बोधक देवताओं के नाम हैं।

शब्द की शक्ति-

शब्द वही हैं और उनकी शक्ति निम्न प्रकार से है-

शब्द शक्ति शब्द शक्ति

‘त्र’ त्र्यम्बक, त्रि-शक्ति तथा त्रिनेत्र ‘य’ यम तथा यज्ञ

‘म’ मंगल ‘ब’ बालार्क तेज

‘कं’ काली का कल्याणकारी बीज ‘य’ यम तथा यज्ञ

‘जा’ जालंधरेश ‘म’ महाशक्ति

‘हे’ हाकिनो ‘सु’ सुगन्धि तथा सुर

‘गं’ गणपति का बीज ‘ध’ धूमावती का बीज

‘म’ महेश ‘पु’ पुण्डरीकाक्ष

‘ष्टि’ देह में स्थित षटकोण ‘व’ वाकिनी

‘र्ध’ धर्म ‘नं’ नंदी

‘उ’ उमा ‘र्वा’ शिव की बाईं शक्ति

‘रु’ रूप तथा आँसू ‘क’ कल्याणी

‘व’ वरुण ‘बं’ बंदी देवी

‘ध’ धंदा देवी ‘मृ’ मृत्युंजय

‘त्यो’ नित्येश ‘क्षी’ क्षेमंकरी

‘य’ यम तथा यज्ञ ‘मा’ माँग तथा मन्त्रेश

‘मृ’ मृत्युंजय ‘तात’ चरणों में स्पर्श

यह पूर्ण विवरण ‘देवो भूत्वा देवं यजेत’ के अनुसार पूर्णतः सत्य प्रमाणित हुआ है।

महामृत्युंजय के अलग-अलग मंत्र हैं। आप अपनी सुविधा के अनुसार जो भी मंत्र चाहें चुन लें और नित्य पाठ में या आवश्यकता के समय प्रयोग में लाएँ। मंत्र निम्नलिखित हैं-

तांत्रिक बीजोक्त मंत्र-

ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय व मामृततस्वः भुवः भूः ॐ ॥

संजीवनी मंत्र अर्थात्‌ संजीवनी विद्या-

ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूर्भवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनांन्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ।

महामृत्युंजय का प्रभावशाली मंत्र-

ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ

जय जय श्री राधे

हर हर महादेव 🙏

जानिए चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का ऐतिहासिक महत्व..!

“भारतीय नववर्ष, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रमी संवत् की आप सभी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ ।

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चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का ऐतिहासिक महत्व:-

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1.इसी दिन के सूर्योदय से ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना प्रारंभ की।

2.सम्राट विक्रमादित्य ने इसी दिन राज्य स्थापित किया। इन्हीं के नाम पर विक्रमी संवत् का पहला दिन प्रारंभ होता है।
3.प्रभु श्री राम के राज्याभिषेक का दिन यही है।
4.शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात् नवरात्र का पहला दिन यही है।
5.सिखो के द्वितीय गुरू श्री अंगद देव जी का जन्म दिवस है।
6.स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने इसी दिन आर्य समाज की स्थापना की एवं कृणवंतो विश्वमआर्यम का संदेश दिया |
7.सिंध प्रान्त के प्रसिद्ध समाज रक्षक वरूणावतार भगवान झूलेलाल इसी दिन प्रगट हुए।
8.विक्रमादित्य की भांति शालिवाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु यही दिन चुना। विक्रम संवत की स्थापना की ।
9.युधिष्ठिर का राज्यभिषेक भी इसी दिन हुआ।
10 संघ संस्थापक प पू डॉ केशवराव बलिराम हेडगेवार का जन्म दिन ।
11 महर्षि गौतम जयंती

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भारतीय नववर्ष का प्राकृतिक महत्व :-

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1.वसंत ऋतु का आरंभ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है जो उल्लास, उमंग, खुशी तथा चारों तरफ पुष्पों की सुगंधि से भरी होती है।
2.फसल पकने का प्रारंभ यानि किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है।
3.नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं अर्थात् किसी भी कार्य को प्रारंभ करने के लिये यह शुभ मुहूर्त होता है।

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नवरात्रि एक संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ होता है नौ रातें । ये पर्व साल में चार बार आता है। पोष, चैत्र, आषाढ और अश्विन प्रतिपदा से नवमी तक मनाया जाता है। नवरात्रि के नौ रातो में तीन देवियों – महालक्ष्मी, महासरस्वती और दुर्गा के नौ स्वरुपों की पूजा होती है जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं ।

चैत्र नवरात्र में दिन बड़े होने लगते हैं और रात्रि घटती है | आज जब ये शुरू होगा तो कई लोग उपवास रखेंगे, पूजा पाठ भी करेंगे |

सनातनी हिन्दुओं में “शैतान” जैसी कपोलकल्पना के लिए कोई स्थान नहीं। पाप की पराकाष्ठा भी आपको ईश्वर के पास पहुंचा देगी। जैसे देवी के नामों को देखेंगे तो जिस राक्षस के वध के लिए उन्हें जाना जाता है, उसका नाम लिए बिना आप देवी का नाम नहीं ले सकते। महिषासुर कहे बिना महिषासुरमर्दिनी नहीं कह सकते, शिव के नाम में भी गजन्तक, तमन्तक कहने में राक्षस का नाम आ जाता है। भगवान विष्णु के द्वारपालों, जय-विजय की कहानी इनमें से कई राक्षसों के जन्म के पीछे होती है, ये भी एक वजह है कि राक्षसों-असुरों को कभी सनातन धर्म में घृणित या निकृष्ट नहीं माना गया।

देवी का नाम दुर्गा होने के पीछे दुर्गमासुर कि कहानी होती है। ये रुरु का पुत्र हिरण्याक्ष (हिरण्यकश्यप-हिरण्याक्ष) के वंश का था और उसे एक बार वेदों के ज्ञान की अभिलाषा हुई। उसने कठिन तप से ब्रह्मा को प्रसन्न किया और वेदों के रचियेता से सारे वेद ही वर स्वरुप मांग लिए। वेद मिलने पर उसने सारी जानकारी अपने लिए रखनी चाही, जिसका नतीजा ये हुआ कि ऋषि-मुनि वेद भूलने लगे। वेदों के ज्ञान के लोप से यज्ञ संभव नहीं रहे और होम ना होने से वर्षा भी रुक गई। लम्बे समय तक बारिश ना होने से जब नदी नाले सूखने लगे और पेड़ पौधे, कृषि भी समाप्त होने लगी तो कई प्राणी मरने लगे।

ऐसे ही समय में राक्षस ने स्वर्ग के देवताओं पर भी आक्रमण किया। यज्ञों के भाग से बरसों से वंचित देवता मुकाबला नहीं कर पाए और भागकर सुमेरु पर्वत की गुफाओं में जा छुपे। उधर ऋषि मुनि भी कंदराओं में थे तो सबने मिलकर माहेश्वरी का आह्वान किया। पार्वती उनके तप से प्रसन्न होकर जब प्रकट हुई तो देवताओं ने उन्हें पृथ्वी की दुर्दशा बताई। हजारों आँखों से इस अवस्था को देखती हुई देवी के आँखों से ऐसी हालत देखकर आंसू बहने लगे। लगातार नौ दिनों तक रोती देवी के आंसुओं से ही बरसात हुई। पानी नदियों और तालाबों, फिर उनसे समुद्र में भी भरने लगा।

अब देवी ने अपना स्वरुप बदला और वो आठ हाथों में धान्य, फल-सब्जियां, फूल और दूसरी वनस्पतियाँ लिए प्रकट हुई। शताक्षी (सैकड़ों नेत्रों वाली) देवी के इस स्वरुप को शाकम्भरी कहते हैं। वेदों को हड़पे बैठे असुर को वेद लौटाने को कहने के लिए उन्होंने दूत भी भेजा। दुर्गमासुर कई देवताओं को जीत चुका था और उसपर बातों का कोई असर तो होना नहीं था। नतीजा ये हुआ कि वो अपनी कई अक्षौहणी सेना लिए देवी पर आक्रमण करने आया। देवी ने अपना स्वरुप फिर बदला और इस बार वो अस्त्र-शस्त्रों से लैस प्रकट हुईं। उनकी और से युद्ध में परा शक्तियां काली, तारिणी, त्रिपुरसुन्दरी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला इत्यादि भी उतरीं।

देवी के शरीर से ही नवदुर्गा, मातृकाएं, योगिनियाँ और अन्य शक्तियां भी प्रकट होकर युद्ध में सम्मिलित होने लगीं। थोड़े ही दिनों में दुर्गमासुर की सारी सेना समाप्त हो गई और ग्यारहवें दिन दुर्गमासुर रथ पर सवार स्वयं युद्ध में उतरा। देवी और राक्षस का युद्ध दो पहर चला और राक्षस मारा गया, राक्षस के देवी के शरीर में समाते ही विश्व की व्यवस्था फिर पहले जैसी हो चली।

राजस्थान के सांभर झील के बारे में मान्यता है कि वो शाकम्भरी देवी ने ही दिया था, उसके पास ही उनका मंदिर भी है। सिकर के पास भी उनका एक मंदिर है और कोलकाता में भी उनके कई मंदिर हैं। शिवालिक की पहाड़ियों में सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) के पास का एक शक्ति पीठ भी उनका ही मंदिर माना जाता है। कट्टक (ओड़िसा) के पास भी एक शाकम्भरी धाम है। बादामी और बंगलौर में शाकम्भरी देवी के मंदिर हैं। फल-फूलों, वनस्पतियों या कहिये सीधा प्रकृति से जुड़े धर्म के ऐसे उदाहरण कम ही सुनाई देते हैं। ऐसी वजहों से भी धर्म, कहीं ज्यादा बेहतर एक जीवन पद्दति हो जाती है जो किसी भी रिलिजन या मजहब में नहीं होता।

“नव” शब्द का एक अर्थ नया, नूतन, नवीन भी होता है। इस बार जब नवरात्रि बीत रही है तो अपने धर्म को एक नयी नजर से, किसी और के सिखाये मुताबिक नहीं, बल्कि अपनी खुद की नजर से देखिये।

ये तय करना लगभग नामुमकिन है कि एक चक्र (सर्किल) शुरू कहाँ से हुआ और ख़त्म कहाँ पर। इस कारण शाक्त परम्पराओं को देखेंगे तो कठिनाई होगी। बरसों मैकले मॉडल की पढ़ाई और ईसाई नियमों पर बने कानूनों के कारण अवचेतन मन विविधता को स्वीकार करने में आनाकानी शुरू कर सकता है। शाक्त परम्पराओं में कुछ आदि काल से चली आ रही लोक-परम्पराएं हैं, कुछ तांत्रिक मत से आती हैं, और कुछ सनातन वैदिक। देवी की उपासना भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे लम्बे समय से जीवित है। स्त्री भी देवी हो सकती है, ऐसा मानने वाली दूसरी सभ्यताएं मिट गयीं, या मिटा डाली गयीं।

सबसे लम्बे समय तक परम्पराएं कैसे चलती हैं इसका उदाहरण आपको लोटे में दिख जाएगा। भारत के कई क्षेत्रों में पानी पीने या रखने के लिए जो लोटा होता है, उसके सबसे पुराने नमूने हड़प्पा-मोहनजोदड़ो की सिन्धु घाटी सभ्यता में मिलते हैं। मिट्टी के बर्तन बनाने का जो तरीका सिन्धु घाटी सभ्यता में इस्तेमाल होता था, वही तरीका असम के माजुली द्वीप के निवासी आज भी प्रयोग करते हैं। सभ्यता के लगातार होने के प्रमाण अगर अभी तक ढूंढें नहीं जा सके हैं तो सभ्यता लगातार जीवित नहीं थी, इस बात के भी कोई प्रमाण नहीं हैं। पहले सरस्वती नदी का अस्तित्व था कहने पर मजाक उड़ाया जाता था, अब आक्रमणकारी इसपर चुप्पी साधते भी दिख ही जायेंगे।

रोबर्ट रेडफील्ड नाम के मानव विज्ञानी (अन्थ्रोपोलोगिस्ट) ने भारत की धार्मिक मान्यताओं को बड़ी और छोटी धारा में बांटने की कोशिश की थी, जिसे बाद में मिल्टन सिंगर और एम.एन. विश्वास जैसे मानव विज्ञानियों ने बढ़ावा भी दिया। उनके हिसाब से बड़ी धारा वो होती थी जिसके लिखित ग्रन्थ थे, उन ग्रंथों को पढ़ने-समझने और समझाने वाला एक वर्ग था। उनके बड़े नेता होते थे जो उसके भाव को जन-जन तक पहुंचाते, धार्मिक तीर्थ होते थे और तिथियों का अपना पंचांग (कैलेंडर) भी होता था। जाहिर है विदेशी चश्मे से देखने के कारण उनसे समझने में कई गलतियाँ हुई हैं। छोटी धारा में वो अनगढ़ प्रथाओं और अंधविश्वासों वाली अलिखित ग्रामीण परम्पराओं को रखते थे।

शाक्त परम्पराओं में देखने पर उनकी अवधारणा की कमियां और स्पष्ट दिखती हैं। ग्रामीण भक्ति भाव का प्रयोग वैदिक रीतियों में भी होगा और संस्कृत में लिखे वैदिक मन्त्रों का प्रयोग तांत्रिक रीतियों में भी स्पष्ट दिख जाता है। दुर्गा पूजा और नवरात्रि का महत्व इसमें भी है कि जरा सा ध्यान देते ही ये आपकी आँख से सेकुलरिज्म का टिन का चश्मा उतार देती है। यहाँ कर्म और वचन तक ही नियम शेष नहीं होते (बांग्ला में “शेष होना” मतलब ख़त्म होना होता है)। यहाँ नियम मन और विचारों पर भी लागू होते हैं। ये कुछ कुछ वैसा है, जैसा भारतीय कानूनों में होने लगा है।

अदालतों में मंदिर के देवी-देवता को जीवित व्यक्ति का दर्जा दिया जाता है, उसकी ओर से कोई मित्र-बान्धव बनकर मुकदमा लड़ता है। शास्त्रों में भी कुछ ऐसा ही कहा जाता है। विशेषकर भक्तियोग सम्बन्धी अवधारणाओं में ये निर्देश होते हैं कि किस देवी या देवता को क्या माना जा सकता है। जैसे श्री कृष्ण के लिए सखा भाव बिलकुल मान्य होगा, लेकिन देवी दुर्गा का उपासक कोई पुरुष, देवी को सखा नहीं मान सकता, वो माता के ही भाव में रहेंगी। ये किसी “बड़ी धारा” में ढूंढना जरूरी नहीं, ये साधारण ग्रामीण नियमों में भी दिख जाएगा। कई मंदिरों में पुरुषों के अकेले साड़ी-चूड़ी जैसी चीज़ें चढ़ाने के प्रयास को अजीब सी हेय दृष्टि का सामना करना पड़ सकता है।

आयातित विचारधारा ने एक राजा के दूसरे से युद्ध को शैव और वैष्णव या शाक्तों के वैमनस्य के रूप में भी दिखाने की कोशिश की है। मंदिरों में जाने और दुर्गा पूजा करने का एक फायदा ये भी है कि इस अवधारणा में भी दर्जनों छेद नजर आ जायेंगे। शैव मंदिर हों या राम मंदिर, शायद ही कोई ऐसी जगह होगी जहाँ एक देवी-देवता के मंदिर में दूसरे को स्थान न दिया गया हो। अजंता-एल्लोरा के चित्र हों, कैलाश मंदिर या शिव के अन्य रूपों के नाम से जाने जाने वाले मंदिर हों, या फिर हजार राम मंदिर, देवी दुर्गा हर जगह दिखती हैं। शारदीय नवरात्र कभी कभी अकाल बोधन के नाम से तो इसलिए ही जाना जाता है क्योंकि श्री राम ने रावण पर विजय पाने के लिए इसी समय देवी उपासना की थी।

पर्व-त्यौहार उनके तर्कों में कई छेद दिखा देते हैं, इसलिए भारत की विविधता पर हमला करने वालों को परम्पराओं से विशेष चिढ़ रहती है। नाम और हुलिए से धोखा देने और भेष बदलने में वो माहिर हैं, ऐसे में सवाल ये भी है कि उन्हें पहचानें कैसे? ये बहुत आसान है। वो आपमें बिना वजह अपराध-बोध पैदा करना चाहेंगे। जैसे बिहार में मौसम अति के करीब होता है। गर्मी में लगातार पसीना पोंछने की जरूरत होगी और ठण्ड में कान ढकना होगा। यहाँ बाढ़ की वजह से आद्रता भी रहती है इसलिए मोटा तौलिया इस्तेमाल करने पर वो सूखेगा नहीं। गरीबी की वजह से सभी मोटा फर वाला तौलिया खरीदने में भी समर्थ नहीं है।

इसलिए बिहारियों के गले में आपको अक्सर “गमछा” टंगा मिल जाएगा। आयातित विचारधारा वाला तुरंत इसे “प्रतीकवाद” घोषित करके आपको वैचारिक रूप से नीचा दिखाने लगेगा। खुद वो गले में कोई महंगा दुपट्टा (जिसका पसीना पोछने या कान बांधने में उपयोग न हो) लपेटे सकता है। उस स्थिति में वो बिना बोले ही आपकी गरीबी के लिए आपको नीचा दिखाना चाहता है। ये जो अकारण ही आपको अपराधी सिद्ध करने की कोशिश है इसमें आक्रमणकारी सबसे आसानी से पहचान में आता है। नाज़ी गोएबेल्स के “नेम कालिंग” से सीखकर उन्होंने इसके लिए नारीवाद, भक्त, ब्राह्मणवाद, दलित चिंतन, ट्रोल जैसे कई शब्द भी बना रखे हैं।

भारत में “आप रुपी भोजन, पर रुपी श्रृंगार” की कहावत भी चलती है। आपको अपराधबोध करवाने के लिए वो आपके मांसाहारी होने का मजाक उड़ाएगा। अगर कहीं आप शाकाहारी हुए तो खाने-पीने की निजी स्वतंत्रता छीन रहे हो, ये कहकर आपको नीचा दिखायेगा। उन्हें असली दिक्कत भारत की विविधता से है। भारत उनके सामने इतने रूपों में आता है कि इतने वर्षों के हमलों में भी वो इसे नष्ट नहीं कर पाए हैं। एक तरीका होता तो वो उसे निम्न-नीच-निकृष्ट कहकर ख़त्म भी कर पाते। एक रूप को अनुचित कहने पर उनके सामने दूसरा प्रकट हो जाता है। दुर्गा पूजा और नवरात्र उनके लिए बड़ी समस्या है।

कहीं तीन महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली के रूप में देवी दिखती हैं, तो कहीं नव दुर्गा में उनके नौ रूप हो जाते हैं। वो चौंसठ योगिनी के रूप में भी पूजी जाती हैं और ललिता सहस्त्रनाम के हज़ार नामों से भी। कोस कोस पर बदलते पानी और वाणी की ही तरह हर भक्त के लिए देवी का रूप भी बदल जाता है। उन्हें दस तरीके से पहनी जाने वाली साड़ी की विविधता जनता में तो क्या मूर्तियों में भी अच्छी नहीं लगती। उन्हें सब एक ही बोरे जैसे परिधान में चाहिए।

बाकी नवरात्रि दुष्टों के दलन का पर्व भी है। भारत की विविधता के शत्रुओं के दमन के पर्व के रूप में भी इसे मना ही सकते हैं।

#नवरात्रि

भगवान_शिव के “35” रहस्य

भगवान शिव अर्थात पार्वती के पति शंकर जिन्हें महादेव, भोलेनाथ, आदिनाथ आदि कहा जाता है।

🔱1. आदिनाथ शिव : –

सर्वप्रथम शिव ने ही धरती पर जीवन के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया इसलिए उन्हें ‘आदिदेव’ भी कहा जाता है। ‘आदि’ का अर्थ प्रारंभ। आदिनाथ होने के कारण उनका एक नाम ‘आदिश’ भी है।

🔱2. शिव के अस्त्र-शस्त्र : –

शिव का धनुष पिनाक, चक्र भवरेंदु और सुदर्शन, अस्त्र पाशुपतास्त्र और शस्त्र त्रिशूल है। उक्त सभी का उन्होंने ही निर्माण किया था।

🔱3. भगवान शिव का नाग : –

शिव के गले में जो नाग लिपटा रहता है उसका नाम वासुकि है। वासुकि के बड़े भाई का नाम शेषनाग है।

🔱4. शिव की अर्द्धांगिनी : –

शिव की पहली पत्नी सती ने ही अगले जन्म में पार्वती के रूप में जन्म लिया और वही उमा, उर्मि, काली कही गई हैं।

🔱5. शिव के पुत्र : –

शिव के प्रमुख 6 पुत्र हैं- गणेश, कार्तिकेय, सुकेश, जलंधर, अयप्पा और भूमा। सभी के जन्म की कथा रोचक है।

🔱6. शिव के शिष्य : –

शिव के 7 शिष्य हैं जिन्हें प्रारंभिक सप्तऋषि माना गया है। इन ऋषियों ने ही शिव के ज्ञान को संपूर्ण धरती पर प्रचारित किया जिसके चलते भिन्न-भिन्न धर्म और संस्कृतियों की उत्पत्ति हुई। शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत की थी। शिव के शिष्य हैं- बृहस्पति, विशालाक्ष, शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज इसके अलावा 8वें गौरशिरस मुनि भी थे।

🔱7. शिव के गण : –

शिव के गणों में भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय प्रमुख हैं। इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन, पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है।

🔱8. शिव पंचायत : –

भगवान सूर्य, गणपति, देवी, रुद्र और विष्णु ये शिव पंचायत कहलाते हैं।

🔱9. शिव के द्वारपाल : –

नंदी, स्कंद, रिटी, वृषभ, भृंगी, गणेश, उमा-महेश्वर और महाकाल।

🔱10. शिव पार्षद : –

जिस तरह जय और विजय विष्णु के पार्षद हैं उसी तरह बाण, रावण, चंड, नंदी, भृंगी आदि शिव के पार्षद हैं।

🔱11. सभी धर्मों का केंद्र शिव : –

शिव की वेशभूषा ऐसी है कि प्रत्येक धर्म के लोग उनमें अपने प्रतीक ढूंढ सकते हैं। मुशरिक, यजीदी, साबिईन, सुबी, इब्राहीमी धर्मों में शिव के होने की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। शिव के शिष्यों से एक ऐसी परंपरा की शुरुआत हुई, जो आगे चलकर शैव, सिद्ध, नाथ, दिगंबर और सूफी संप्रदाय में वि‍भक्त हो गई।

🔱12. बौद्ध साहित्य के मर्मज्ञ अंतरराष्ट्रीय : –

ख्यातिप्राप्त विद्वान प्रोफेसर उपासक का मानना है कि शंकर ने ही बुद्ध के रूप में जन्म लिया था। उन्होंने पालि ग्रंथों में वर्णित 27 बुद्धों का उल्लेख करते हुए बताया कि इनमें बुद्ध के 3 नाम अतिप्राचीन हैं- तणंकर, शणंकर और मेघंकर।

🔱13. देवता और असुर दोनों के प्रिय शिव : –

भगवान शिव को देवों के साथ असुर, दानव, राक्षस, पिशाच, गंधर्व, यक्ष आदि सभी पूजते हैं। वे रावण को भी वरदान देते हैं और राम को भी। उन्होंने भस्मासुर, शुक्राचार्य आदि कई असुरों को वरदान दिया था। शिव, सभी आदिवासी, वनवासी जाति, वर्ण, धर्म और समाज के सर्वोच्च देवता हैं।

🔱14. शिव चिह्न : –

वनवासी से लेकर सभी साधारण व्‍यक्ति जिस चिह्न की पूजा कर सकें, उस पत्‍थर के ढेले, बटिया को शिव का चिह्न माना जाता है। इसके अलावा रुद्राक्ष और त्रिशूल को भी शिव का चिह्न माना गया है। कुछ लोग डमरू और अर्द्ध चन्द्र को भी शिव का चिह्न मानते हैं, हालांकि ज्यादातर लोग शिवलिंग अर्थात शिव की ज्योति का पूजन करते हैं।

🔱15. शिव की गुफा : –

शिव ने भस्मासुर से बचने के लिए एक पहाड़ी में अपने त्रिशूल से एक गुफा बनाई और वे फिर उसी गुफा में छिप गए। वह गुफा जम्मू से 150 किलोमीटर दूर त्रिकूटा की पहाड़ियों पर है। दूसरी ओर भगवान शिव ने जहां पार्वती को अमृत ज्ञान दिया था वह गुफा ‘अमरनाथ गुफा’ के नाम से प्रसिद्ध है।

🔱16. शिव के पैरों के निशान : –

  1. श्रीपद- श्रीलंका में रतन द्वीप पहाड़ की चोटी पर स्थित श्रीपद नामक मंदिर में शिव के पैरों के निशान हैं। ये पदचिह्न 5 फुट 7 इंच लंबे और 2 फुट 6 इंच चौड़े हैं। इस स्थान को सिवानोलीपदम कहते हैं। कुछ लोग इसे आदम पीक कहते हैं।
  2. रुद्र पद- तमिलनाडु के नागपट्टीनम जिले के थिरुवेंगडू क्षेत्र में श्रीस्वेदारण्येश्‍वर का मंदिर में शिव के पदचिह्न हैं जिसे ‘रुद्र पदम’ कहा जाता है। इसके अलावा थिरुवन्नामलाई में भी एक स्थान पर शिव के पदचिह्न हैं।
  3. तेजपुर- असम के तेजपुर में ब्रह्मपुत्र नदी के पास स्थित रुद्रपद मंदिर में शिव के दाएं पैर का निशान है।
  4. जागेश्वर- उत्तराखंड के अल्मोड़ा से 36 किलोमीटर दूर जागेश्वर मंदिर की पहाड़ी से लगभग साढ़े 4 किलोमीटर दूर जंगल में भीम के मंदिर के पास शिव के पदचिह्न हैं। पांडवों को दर्शन देने से बचने के लिए उन्होंने अपना एक पैर यहां और दूसरा कैलाश में रखा था।
  5. रांची- झारखंड के रांची रेलवे स्टेशन से 7 किलोमीटर की दूरी पर ‘रांची हिल’ पर शिवजी के पैरों के निशान हैं। इस स्थान को ‘पहाड़ी बाबा मंदिर’ कहा जाता है।

🔱17. शिव के अवतार : –

वीरभद्र, पिप्पलाद, नंदी, भैरव, महेश, अश्वत्थामा, शरभावतार, गृहपति, दुर्वासा, हनुमान, वृषभ, यतिनाथ, कृष्णदर्शन, अवधूत, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, किरात, सुनटनर्तक, ब्रह्मचारी, यक्ष, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, द्विज, नतेश्वर आदि हुए हैं। वेदों में रुद्रों का जिक्र है। रुद्र 11 बताए जाते हैं- कपाली, पिंगल, भीम, विरुपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, आपिर्बुध्य, शंभू, चण्ड तथा भव।

🔱18. शिव का विरोधाभासिक परिवार : –

शिवपुत्र कार्तिकेय का वाहन मयूर है, जबकि शिव के गले में वासुकि नाग है। स्वभाव से मयूर और नाग आपस में दुश्मन हैं। इधर गणपति का वाहन चूहा है, जबकि सांप मूषकभक्षी जीव है। पार्वती का वाहन शेर है, लेकिन शिवजी का वाहन तो नंदी बैल है। इस विरोधाभास या वैचारिक भिन्नता के बावजूद परिवार में एकता है।

🔱19. कैलाश पर्वत :-

ति‍ब्बत स्थित कैलाश पर्वत पर उनका निवास है। जहां पर शिव विराजमान हैं उस पर्वत के ठीक नीचे पाताल लोक है जो भगवान विष्णु का स्थान है। शिव के आसन के ऊपर वायुमंडल के पार क्रमश: स्वर्ग लोक और फिर ब्रह्माजी का स्थान है।

🔱20.शिव भक्त : –

ब्रह्मा, विष्णु और सभी देवी-देवताओं सहित भगवान राम और कृष्ण भी शिव भक्त है। हरिवंश पुराण के अनुसार, कैलास पर्वत पर कृष्ण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की थी। भगवान राम ने रामेश्वरम में शिवलिंग स्थापित कर उनकी पूजा-अर्चना की थी।

🔱21.शिव ध्यान : –

शिव की भक्ति हेतु शिव का ध्यान-पूजन किया जाता है। शिवलिंग को बिल्वपत्र चढ़ाकर शिवलिंग के समीप मंत्र जाप या ध्यान करने से मोक्ष का मार्ग पुष्ट होता है।

🔱22.शिव मंत्र : –

दो ही शिव के मंत्र हैं पहला- ॐ नम: शिवाय। दूसरा महामृत्युंजय मंत्र- ॐ ह्रौं जू सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जू ह्रौं ॐ ॥ है।

🔱23.शिव व्रत और त्योहार : –

सोमवार, प्रदोष और श्रावण मास में शिव व्रत रखे जाते हैं। शिवरात्रि और महाशिवरात्रि शिव का प्रमुख पर्व त्योहार है।

🔱24.शिव प्रचारक : –

भगवान शंकर की परंपरा को उनके शिष्यों बृहस्पति, विशालाक्ष (शिव), शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज, अगस्त्य मुनि, गौरशिरस मुनि, नंदी, कार्तिकेय, भैरवनाथ आदि ने आगे बढ़ाया। इसके अलावा वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, बाण, रावण, जय और विजय ने भी शैवपंथ का प्रचार किया। इस परंपरा में सबसे बड़ा नाम आदिगुरु भगवान दत्तात्रेय का आता है। दत्तात्रेय के बाद आदि शंकराचार्य, मत्स्येन्द्रनाथ और गुरु गुरुगोरखनाथ का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।

🔱25.शिव महिमा : –

शिव ने कालकूट नामक विष पिया था जो अमृत मंथन के दौरान निकला था। शिव ने भस्मासुर जैसे कई असुरों को वरदान दिया था। शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था। शिव ने गणेश और राजा दक्ष के सिर को जोड़ दिया था। ब्रह्मा द्वारा छल किए जाने पर शिव ने ब्रह्मा का पांचवां सिर काट दिया था।

🔱26.शैव परम्परा : –

दसनामी, शाक्त, सिद्ध, दिगंबर, नाथ, लिंगायत, तमिल शैव, कालमुख शैव, कश्मीरी शैव, वीरशैव, नाग, लकुलीश, पाशुपत, कापालिक, कालदमन और महेश्वर सभी शैव परंपरा से हैं। चंद्रवंशी, सूर्यवंशी, अग्निवंशी और नागवंशी भी शिव की परंपरा से ही माने जाते हैं। भारत की असुर, रक्ष और आदिवासी जाति के आराध्य देव शिव ही हैं। शैव धर्म भारत के आदिवासियों का धर्म है।

🔱27.शिव के प्रमुख नाम : –

शिव के वैसे तो अनेक नाम हैं जिनमें 108 नामों का उल्लेख पुराणों में मिलता है लेकिन यहां प्रचलित नाम जानें- महेश, नीलकंठ, महादेव, महाकाल, शंकर, पशुपतिनाथ, गंगाधर, नटराज, त्रिनेत्र, भोलेनाथ, आदिदेव, आदिनाथ, त्रियंबक, त्रिलोकेश, जटाशंकर, जगदीश, प्रलयंकर, विश्वनाथ, विश्वेश्वर, हर, शिवशंभु, भूतनाथ और रुद्र।

🔱28.अमरनाथ के अमृत वचन : –

शिव ने अपनी अर्धांगिनी पार्वती को मोक्ष हेतु अमरनाथ की गुफा में जो ज्ञान दिया उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएं हो चली हैं। वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है। ‘विज्ञान भैरव तंत्र’ एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए गए 112 ध्यान सूत्रों का संकलन है।

🔱29.शिव ग्रंथ : –

वेद और उपनिषद सहित विज्ञान भैरव तंत्र, शिव पुराण और शिव संहिता में शिव की संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है।

🔱30.शिवलिंग : –

वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है, उसे लिंग कहते हैं। इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है। वस्तुत: यह संपूर्ण सृष्टि बिंदु-नाद स्वरूप है। बिंदु शक्ति है और नाद शिव। बिंदु अर्थात ऊर्जा और नाद अर्थात ध्वनि। यही दो संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है। इसी कारण प्रतीक स्वरूप शिवलिंग की पूजा-अर्चना है।

🔱31.बारह ज्योतिर्लिंग : –

  1. सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकालेश्वर, ॐकारेश्वर, वैद्यनाथ, भीमशंकर, रामेश्वर, नागेश्वर, विश्वनाथजी, त्र्यम्बकेश्वर, केदारनाथ, घृष्णेश्वर। ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति के संबंध में अनेकों मान्यताएं प्रचलित है। ज्योतिर्लिंग यानी ‘व्यापक ब्रह्मात्मलिंग’ जिसका अर्थ है ‘व्यापक प्रकाश’। जो शिवलिंग के बारह खंड हैं। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है।
  2. दूसरी मान्यता अनुसार शिव पुराण के अनुसार प्राचीनकाल में आकाश से ज्‍योति पिंड पृथ्‍वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया। इस तरह के अनेकों उल्का पिंड आकाश से धरती पर गिरे थे। भारत में गिरे अनेकों पिंडों में से प्रमुख बारह पिंड को ही ज्‍योतिर्लिंग में शामिल किया गया।

🔱32.शिव का दर्शन : –

शिव के जीवन और दर्शन को जो लोग यथार्थ दृष्टि से देखते हैं वे सही बुद्धि वाले और यथार्थ को पकड़ने वाले शिवभक्त हैं, क्योंकि शिव का दर्शन कहता है कि यथार्थ में जियो, वर्तमान में जियो, अपनी चित्तवृत्तियों से लड़ो मत, उन्हें अजनबी बनकर देखो और कल्पना का भी यथार्थ के लिए उपयोग करो। आइंस्टीन से पूर्व शिव ने ही कहा था कि कल्पना ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण है।

🔱33.शिव और शंकर : –

शिव का नाम शंकर के साथ जोड़ा जाता है। लोग कहते हैं- शिव, शंकर, भोलेनाथ। इस तरह अनजाने ही कई लोग शिव और शंकर को एक ही सत्ता के दो नाम बताते हैं। असल में, दोनों की प्रतिमाएं अलग-अलग आकृति की हैं। शंकर को हमेशा तपस्वी रूप में दिखाया जाता है। कई जगह तो शंकर को शिवलिंग का ध्यान करते हुए दिखाया गया है। अत: शिव और शंकर दो अलग अलग सत्ताएं है। हालांकि शंकर को भी शिवरूप माना गया है। माना जाता है कि महेष (नंदी) और महाकाल भगवान शंकर के द्वारपाल हैं। रुद्र देवता शंकर की पंचायत के सदस्य हैं।

🔱34. देवों के देव महादेव :

देवताओं की दैत्यों से प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। ऐसे में जब भी देवताओं पर घोर संकट आता था तो वे सभी देवाधिदेव महादेव के पास जाते थे। दैत्यों, राक्षसों सहित देवताओं ने भी शिव को कई बार चुनौती दी, लेकिन वे सभी परास्त होकर शिव के समक्ष झुक गए इसीलिए शिव हैं देवों के देव महादेव। वे दैत्यों, दानवों और भूतों के भी प्रिय भगवान हैं। वे राम को भी वरदान देते हैं और रावण को भी।

🔱35. शिव हर काल में : –

भगवान शिव ने हर काल में लोगों को दर्शन दिए हैं। राम के समय भी शिव थे। महाभारत काल में भी शिव थे और विक्रमादित्य के काल में भी शिव के दर्शन होने का उल्लेख मलता है। भविष्य पुराण अनुसार राजा हर्षवर्धन को भी भगवान शिव ने दर्शन दिये थे।

महादेव🙏

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